व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
करता है। अस्तित्व में मानव अविभाज्य होने के कारण मानव अपने मानवत्व सहित व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी निर्वाह करना ही जागृति, समाधान, सर्वतोमुखी समाधान, व्यवस्था उसकी निरंतरता ही मानव परंपरा में परम प्रयोजन है। यही महिमा सर्वमानव शुभ के रूप में प्रमाणित हो जाती है। यही सहअस्तित्व पूर्ण परिवार, समाज पुनः अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था स्वरूप में स्पष्ट होना पाया जाता है। इन्हीं उद्देश्यों विधियों में जागृत होना ही शिक्षा-संस्कार, संबंध, संबंधों में परस्पर अभिव्यक्ति, संप्रेषणा, कार्य-व्यवहार का प्रकाशन ही प्रधान रूप में मित्र, भाई-बहिन संबंधों में आचरण, परीक्षण, मूल्यांकन के लिये तथ्य है।
उक्त तथ्यों का हृदयंगम और पारंगत विधियों से परिवार मानव के रूप में प्रमाणित होना स्वाभाविक है। यही मानव परंपरा का अनिवार्य आवश्यकता, सार्थकता है। इस प्रकार हर मित्र, हर भाई, हर बहिन समृद्धिपूर्वक व्यवस्था में जीना ही उद्देश्य है। इस विधि से भाई-बहन संबंधों में शिशु कौमार्य अवस्था से ही पूरकता को पहचानने का क्रम बना हुआ है। अन्य संबंधों में कुछ आयु के बाद ही पूरकता संबंध बन पाता है। यथा गुरू-शिष्य संबंध कुछ आयु के बाद आरंभ होता है। पति-पत्नी संबंध कुछ आयु के बाद आरंभ होता है।
भाई-बहन संबध शिशुकाल से ही इंगित निर्देशित हुआ रहता है। इनमें संस्कारों का समावेश रहना सार्वभौम व्यवस्था अखण्ड समाज सहज मानसिकता के लिए अर्पित होता ही रहता है। जैसा - हर लड़कियों को बहन के रूप में संबोधन करने का क्रम चाहे अपने परिवार की हो चाहे अड़ोस पड़ोस, गाँव की क्यों न हो और भाई का संबोधन से संबंधों का प्राथमिक अथवा आरंभिक परिचय इंगित होना पाया जाता है