व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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पद्धति, नीति सम्पन्न होना पाया जाता है। सहअस्तित्व विधि से ही सम्पूर्ण प्रयोजन पूरकता, विकास, संक्रमण, जीवन, जीवनीक्रम, जीवन का कार्यक्रम, जागृति और जागृति का निरंतरता स्वाभाविक रूप में प्रयोजनों के अर्थ में ही स्पष्ट हो जाता है। जैसे - एक परमाणु में एक से अधिक अंश निश्चित दूरी में रहकर कार्य करता हुआ देखने को मिलता है। फलस्वरूप परमाणु एक व्यवस्था के स्वरूप में मौलिक प्रस्तुति है। इसी प्रकार विभिन्न संख्यात्मक अंशों से गठित परमाणुओं का रचना कार्य के योगफल में व्यवस्था के रूप में वर्तमान रहना स्पष्ट हुआ है।

अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में अथ से इति तक, सहअस्तित्व ही संबंधों का मूल सूत्र है। परमाणु अंशों का संबंध और उसका निर्वाह के समानता में परमाणु व्यवस्था, परमाणुओं के परस्पर संबंध और उसका निर्वाह बराबर अणु व्यवस्था; अणु-अणु के साथ परस्पर संबंध और उसका निर्वाह बराबर रचना व्यवस्था। हर रचनाएँ विरचित होते हुए पुनःरचना के लिये पूरक होना पाया जाता है।

जीवन और शरीर संबंध उसका निर्वाह वंशानुषंगीयता और व्यवस्था; जीवन और शरीर का परस्पर संबंध + जीवन जागृति सहज निर्वाह = संस्कारनुषंगीय अभिव्यक्ति एवं मानवीय व्यवस्था है।

मानवीयता सहज सभी संबंधों का प्रधान प्रमाण व्यवस्था के रूप में जीना, समग्र व्यवस्था में भागीदारी करना ही है। इस परम लक्ष्य को सदा-सदा परंपरा निर्वाह करने के क्रम में ही सभी प्रकार के संबंधों को पहचानना मानव में, से, के लिये अनिवार्य है। इससे स्पष्ट हुआ है कि अस्तित्व ही सहअस्तित्व के रूप में व्यवस्था में भागीदारी को प्रकाशित