व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
बनाए रखने, शरीर संवेदना का दृष्टा होने के अर्हता सहित शरीर यात्रा को आरंभ करता है। परंपरा जागृत रहने के आधार पर ही जीवन जागृति पंरपरा बनना सहज संभव है। जागृत परंपरा का स्वरूप पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है। पुनश्च यहाँ स्मरण के लिये अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन फलतः अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में अनुभव सम्पन्नता के प्रामाणिकता सहित जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान, मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान में, से, के लिये प्रयोजन और प्रक्रिया विधि से बोधगम्य कराने वाली अध्ययन, अध्यापन, शिक्षण, प्रशिक्षण (पारंगत हुआ को सिखाना, किया हुआ को कराना) विधि से अस्तित्व सहज व्यवस्था रूपी वैभव की अवधारणाओं को स्थापित करना ही शिक्षा-संस्कार का प्रधान प्रभाव और परंपरा है। यही सर्वप्रथम मानवकृत वातावरण का महिमा है। यह जागृति का द्योतक है। इस क्रम में हर व्यक्ति सहअस्तित्व में, से, के लिये आश्वस्त, विश्वस्त होना एक आवश्यकता रहता ही है। इसके आधार पर समग्र अस्तित्व का अवधारणा हर मानव जीवन में स्थापित होता है। प्रत्येक मानव स्वयं को समझने के क्रम में मैं अपने में क्या हूँ? कैसा हूँ? क्या चाहता हूँ? इस प्रकार के प्रश्न चिन्ह विद्यार्थियों में लुप्त-सुप्त-प्रकट कार्य होना पाया जाता है। इसका उत्तर स्वयं में सहअस्तित्व सहज अवधारणा के रूप में स्थापित होना पाया जाता है जैसा -
- मैं मानव हूँ - मैं मनाकार को साकार करने वाला व मनः स्वस्थता का आशावादी व प्रमाणित करने वाला हूँ।
- मैं ज्ञानावस्था की इकाई हूँ।
मैं शरीर व जीवन का संयुक्त साकार रूप हूँ।