व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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  • मैं जीवन सहज रूप में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने का क्रियाकलाप हूँ। शरीर रूप में पाँच ज्ञानेन्द्रियों, पाँच कर्मेन्द्रियों व उसके क्रियाकलाप का दृष्टा हूँ।
  • मैं मानवत्व सहित व्यवस्था हूँ।
  • मैं बौद्धिक समाधान व भौतिक समृद्धि सम्पन्न हूँ अथवा सम्पन्न होना चाहता हूँ।
  • मैं जीवन जागृतिपूर्णता और उसकी निरंतरता चाहता हूँ, साथ ही भ्रम, भय व समस्याओं से मुक्त होना चाहता हूँ।
  • मैं सार्वभौम व्यवस्था व अखण्ड समाज में भागीदार होने का अधिकारी होना चाहता हूँ, स्वानुशासित होना चाहता हूँ एवं प्रत्येक मानव को ऐसा होता हुआ देखना चाहता हूँ।

उक्त सभी आशय प्रत्येक भाई-बहनों में गतिशीलता सहज विधि से विशेषकर विचार शैली और वांङ्गमय गति के लिये प्रधान बिन्दु है। इन बिन्दुओं के आधार पर एक-दूसरे के साथ वार्तालाप, विश्लेषण पूर्वक सम्पन्न होना एक आवश्यकता है। इसका उत्तर पाना भी परमावश्यक है। इसी के साथ-साथ विश्लेषणों को प्रयोजन सम्बद्ध होना महत्वपूर्ण बिन्दु है। ऊपर कहे आठ बिन्दुओं में से प्रयोजन भी इंगित होता है। प्रयोजनों को जानना, मानना ही विवेचना का तात्पर्य है। विश्लेषण से संगतीकरण प्रयोजन, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारीपूर्वक समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमाणित करना है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि हर विश्लेषण सूत्र, व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहज क्रियाकलापों को वर्णित, व्याख्यायित करना ही प्रयोजन है। ऐसे प्रयोजनों के साथ ही सम्पूर्ण विज्ञान सहज अध्ययन सार्थक होना पाया जाता है। जीवन सहज विधि से मानव विवेक और विज्ञान सम्मत प्रणाली,