व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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फलस्वरूप क्रम से विचार, इच्छा, चिंतन, बोध और अनुभव में प्रमाणित होना पाया जाता है। संबोधन आरंभिक संस्कार है, इसका प्रधान क्रिया उच्चारण है। उच्चारण के अनन्तर रूप, कार्य, व्यवहार, आचरणों के आधार पर गुण, स्वभावों को पहचानना संभव हो जाता है। यह हर शिशु में कार्यरत जीवन सहज महिमा है। धर्म बोध अध्ययन विधि से सम्पन्न हुआ रहता ही है। गुण, स्वभाव, कार्य व्यवहार में निहित रहता है। उसके प्रमाणों, साक्ष्यों के आधार पर व्यवस्था अथवा समाधान कारक होना मूल्यांकित होता है। यही मूल्य और मूल्यांकन का महिमा है। उभय तृप्ति पाने का विधि भी यही है। अतएव शिशु, बाल्य, किशोर अवस्थाओं से ही भाई-बहनों और मित्रों का नैसर्गिकता और उसकी निरंतरता होने के आधार पर परस्पर मूल्यांकन अति सहज है। मूल्यांकन वास्तविक और सहायतापूर्ण होना स्वाभाविक है। यही पूरकता का परम उद्देश्य भी है। इस विधि से सुस्पष्ट है मित्र एवं भाई-बहन का संबंध सदा-सदा ही मूल्यांकन प्रणाली में गतित होना पाया जाता है। उभय जागृति के लिये यही सर्वोत्तम प्रणाली है। स्वाभाविक रूप में मानव परंपरा में एक भाई को एक बहन, एक मित्र को एक मित्र समीचीन रहता ही है।

3. मित्र-मित्र संबंध :- जीवन ज्ञान सम्पन्नता के अनन्तर सुस्पष्ट हो जाता है कि सभी संबंध जीवन जागृति और उसका प्रमाणीकरण प्रणाली का ही पहचान है। जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान सम्पन्न होने के उपरान्त सम्पूर्ण प्रकार के संबंधों, मूल्यों, मूल्यांकनों और उभयतृप्ति का पहचान, स्वीकृति मानसिकता, गति, प्रयोजन पुनः पहचान, मूल्यांकन क्रम आवर्तित रहता ही है। यह अनुस्यूत प्रक्रिया है। जीवन ही दृष्टा-कर्ता-भोक्ता होने का तथ्य जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत होने के फलन में सहअस्तित्व में