व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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जागृतिपूर्वक ही संबंध स्वीकृति अवधारणा में हो पाता है यही एक संस्कार है। ऐसी अवधारणा ही संबंधों का प्रयोजन सहज सत्य के रूप में स्वीकृत होना देखा गया। यह क्रिया जागृत जीवन शक्तियों का दर्शन क्रियाकलाप के फलस्वरूप घटित होना देखा गया है। जागृत जीवन बल ही मूल्य और मूल्यांकन में प्रस्तुत होता है। फलस्वरूप समाधान समीकृत (फलित) होता है। यही मानव धर्म सहज सुख का स्रोत है। यह स्रोत प्रत्येक मानव में जागृत जीवन के रूप में वैभवित होना पाया जाता है। जीवन जागृत होने में कोई भी, कितना भी भ्रमित परिकल्पनाएं बाधा का कारण नहीं हो पाता है, जैसे-विविध रंग, जाति, वर्ग, देश, भाषा, लिंग, नस्ल। यह सभी मिलकर अथवा किसी एक जो मानव में विविधता का कल्पना समा लिया वह सब जागृति के सम्मुख होने के स्थिति में अपने आप विलय हो जाता है। एक सूत्र में सभी व्यर्थ-अनर्थ, पाश्वीय-राक्षसी कल्पनायें मानवीयता सहज जागृति के प्रभाव के साथ साथ ही सभी भ्रम, निभ्रम (जागृति) में विलय हो जाते हैं। जैसे एक गणित का प्रश्न का, सही उत्तर पाने के लिये प्रक्रिया प्रयास तब तक किया जाता है जब तक सही उत्तर पाया नहीं गया। जब सही उत्तर समझ में आ जाती है उसी के साथ-साथ गलती करने वाला विविध भ्रम अपने-आप उत्तर ज्ञान में विलय हो जाता है। विलय होने का तात्पर्य इतना ही है जिसका प्रभाव शेष नहीं निशेष हो जाता है।

संबंध का स्वीकृति अथवा अवधारणा अपने स्वरूप में समाधान और उसकी निरंतरता ही है। यह विज्ञान और विवेक सम्मत तर्क विधि से बोध होता है। ऐसा बोध सम्पन्न होने का अधिकार, प्रत्येक जीवन में समाहित रहता ही है। यहाँ यह भी स्मरण में रहना आवश्यक है कि जीवन