व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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ही दृष्टा, कर्ता और भोक्ता होता है। यह जागृतिपूर्वक ही अनुभव गम्य होता है क्योंकि बोध के अनन्तर अनुभव ही एकमात्र जागृति के लिये सोपान है। अध्ययनपूर्वक अस्तित्व बोध, जीवन बोध और संबंध बोध होना देखा गया है। इन्हीं संबंध बोध में प्रयोजन रूपी समाधान को व्यक्त करना ही अथवा प्रमाणित करना ही मूल्यों का निर्वाह है। समाधान अपने स्वरूप में सुख ही है। यही समाधान सम्पूर्ण आयाम, कोण, परिप्रेक्ष्य, देश, कालों में प्रमाणित होने के क्रम में ही सर्वतोमुखी समाधान कहलाता है। हर विधाओं में प्रमाण सहज अभिव्यक्ति अनुभवमूलक विधि से ही सम्पन्न होना पाया जाता है। इसलिये संबंध अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में अनुभव होना स्वाभाविक है और जागृति का साक्ष्य है।

अभ्यास विधि से जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही सम्पूर्णता है। दूसरे भाषा में अनुभव और अभिव्यक्ति ही सम्पूर्णता है। स्वीकारा गया सम्पूर्ण अवधारणाएँ प्रमाणित होने के लिये उत्सवित रहता ही है। ऐसी बोध सहज उत्सव क्रियाकलाप को प्रखर प्रज्ञा के नाम से इंगित कराया गया। सम्पूर्ण प्रकार के अभ्यास का प्रयोजन प्रज्ञा प्रखर होना ही है। जागृति क्रम में जानना, मानना, पहचानना अध्ययन विधि से अध्ययनपूर्वक निर्देशन सहित बोध होना पाया जाता है। इसी क्रम में जागृत परंपरा प्रदत्त विधि से संबंधों का पहचान, प्रयोजनों का बोध स्वाभाविक रूप में होना पाया जाता है। यह हर मानव संबंध, नैसर्गिक संबंधों में निहित मूल्यों, मूल्यांकन, प्रयोजन के रूप में समझ में आता है। यही संबंध और मूल्य बोध होने की विधि है।

संबंध और मूल्य अस्तित्व सहज सहअस्तित्व में ही होना स्पष्ट हो चुका है। शरीर और जीवन का संयोग भी