व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

Back to Books
Page 171

सहअस्तित्व सहज सूत्र से ही सूत्रित है। सर्वमानव भी सहअस्तित्व में ही जीवन जागृति को प्रमाणित करने का कार्य करता है, या करना चाहता है या करने के लिये बाध्य है। सहअस्तित्व स्वयं मानव में होने वाले अनुभव सहज स्वीकृति है। इन स्वीकृति के साथ ही प्रमाणित होने के क्रम में संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति प्रमाणित होना पाया जाता है। यही चरित्र का चरमोत्कर्ष प्रयोजन है। ऐसे चरित्र के आधार पर ही नैतिकता स्वाभाविक रूप में सार्थक होता है। इसे भली प्रकार से परखा गया है, जीकर देखा गया है।

1. माता-पिता :- संबंधों का क्रम पहले सूची में प्रस्तुत किया जा चुका है। उसमें से पहला संबंध माता-पिता और पुत्र-पुत्री संबंध है। हर शिशु, हर वृद्ध जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में ही होना देखा गया है। शरीर विधा से मानव परंपरा की निरंतरता के लिये एक शरीर रचना वह भी वंशानुगत विधि से सम्पन्न होना पाया जाता है। हर संतान के लिए माता-पिता का संबंध इसी आधार पर होना पाया जाता है। इसके अनंतर शरीर संरक्षण, पोषण के आधार पर माता-पिता के संबंधों को पहचाना गया है। यह पोषण और संरक्षण रूपी अपेक्षा शिशुकालीन संबोधन में ही निहित रहना पाया जाता है। जैसे ही शिशुकाल से कौमार्य अवस्था शरीर के आयु के अनुसार गणना हो पाता है ऐसी स्थिति में पुत्र-पुत्री के संबोधन में भी अपेक्षाएँ आरंभ होते हैं। ये अपेक्षाएं मानवीयतापूर्ण सभ्यता, संस्कृति, भाषा के आधार पर होना पाया जाता है। माता-पिता शिशुकाल में शिशु से कोई अपेक्षा नहीं करते। यह सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है। जैसे ही शिशु काल से यौवन काल आता है, (शरीर के आधार पर ही इस समय को पहचाना जाता है), तब तक माता-पिता की अपेक्षाएँ और बढ़ जाती हैं विशेषकर जीवन जागृति सहज संस्कृति, सभ्यता,