व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
समाजशास्त्र, भोगोन्मादी समाजशास्त्र के स्थान पर प्रस्तावित किया है।
इस विश्लेषण से यह बात स्पष्ट हो गया कि जीवन जागृतिपूर्वक ही हर मानव स्वायत्तता पूर्वक परिवार मानव होने का प्रमाण सहित स्वयं में व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का निर्वाह करता है। जीने की कला दूसरे विधि से मानवीयतापूर्ण आचरण विधि मानव सहज परिभाषा क्रम से ही मानवीयता का व्याख्या सहज ही सार्थक हो जाता है। सार्थक होने का तात्पर्य अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था क्रम में भागीदारी है। अखण्ड समाज सूत्र परिवार विधि से सार्थक होना पाया जाता है। परिवारों का स्वरूप और विशालता को दश सोपानों में स्पष्ट किया गया है। इसी के साथ-साथ दश सोपानों में सभा-स्वरूप व्यवस्था कार्य, कर्तव्य, दायित्व को स्पष्ट किया है। परिवार क्रम में मूल्य, चरित्र, नैतिकता अविभाज्यता को सहज ही स्पष्ट किया जा चुका है। दश सोपानीय समाज रचना और व्यवस्था गति अपने-आप में एक दूसरे को संतुलित करने के अर्थ से हम अभिहित होते हैं। जैसे :- परिवार - जिसका सूत्र संबंध मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति और परिवारगत उत्पादन-कार्य में पूरकता फलस्वरूप परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन है। परस्पर परिवार व्यवस्था में विनिमय एक अनिवार्य कार्य है। इसी के साथ सीखा हुआ को सिखाने, किया हुआ को कराने, समझा हुआ को समझाने का कार्य प्रणाली सदा-सदा जागृत मानव पंरपरा में वर्तमान रहता ही है। इसी क्रम में सर्वमानव सुख, सर्वमानव शुभ और सर्वमानव समाधान सर्वसुलभ होता ही रहता है। इस स्थिति को पाना सर्वमानव का अभीप्सा है। अतएव सुलभ होने का मार्ग सुस्पष्ट है।