व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
सभी अभिव्यक्तियाँ सभी अवस्थाओं में अभ्युदय के अर्थ में ही व्यक्त हैं। इस प्रकार अस्तित्व स्वयं में ही प्रकाशित, अभिव्यक्त व सम्प्रेषित है। इस क्रम में यह समझ में आता है कि अस्तित्व निरंतर स्पष्ट व प्रकाशमान है। अस्तित्व ही नित्य संप्रेषणा है जो नित्य समाधान नित्य व्यवस्था है। अस्तित्व ही नित्य व्यक्त अभिव्यक्त है क्योंकि अस्तित्व सदा-सदा स्थिर, शाश्वत है, नित्य वैभव है। इन्हीं तथ्यों से यह भी ज्ञात होता है कि अस्तित्व में, से, के लिये कोई रहस्य व कोई अवरोध एवं संघर्ष नहीं है। विरोध नहीं है, विद्रोह नहीं है, विपन्नता नहीं है। बड़े-छोटे के रूप में कुंठा निराशा नहीं है। युद्ध व शोषण नहीं है। ये सभी नकारात्मक पक्ष मानव के द्वारा अपनाया हुआ भ्रमित परंपरा का देन है।
जागृत परंपरा में मानव ही सम्पूर्ण आयाम, कोण, दिशा व परिप्रेक्ष्य सर्व-देशकाल में जागृत शिक्षा यथा अस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन रूपी जीवन ज्ञान सहज परम ज्ञान, अस्तित्व दर्शन सहज सहअस्तित्व रूपी परम दर्शन, मानवीयतापूर्ण आचण रूपी परम आचरण, ज्ञान-विज्ञान-विवेक सम्मत समाधानपूर्ण शिक्षा-संस्कार सुलभ होता है। जागृति सहज मानवीयतापूर्ण आचरण और मानव सहज परिभाषा के अनुरूप शास्त्रों का प्रणयन स्वाभाविक रूप में ही है। आवर्तनशील अर्थशास्त्र अपने सहअस्तित्व सहज सूत्रों के प्रतिपादन सहित व्याख्यायित हुआ है। यह परिवार सहज आवश्यकता से अधिक उत्पादन के लिये अपनाया हुआ उत्पादन कार्य में नियोजित श्रम, उत्पादन सहज उपयोगिता के आधार पर उसका मूल्यांकन फलस्वरूप श्रम विनिमय प्रणाली स्थापित होती है। यह समझ के करो विधि से सर्वसुलभ हो जाता है। इसी क्रम में यह व्यवहारवादी