व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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मन (जीवन) और धन रूपी तथ्यों का पोषण, संरक्षण अपेक्षा और प्रवृत्ति मानव सहज गति होना पाया जाता है। यथा -

  • जागृत मानव अन्य की जागृति के लिये प्रवृत्त रहता है।
  • स्वस्थ मानव अन्य के स्वस्थता के लिए प्रयत्नशील रहता है।
  • समृद्धिशील मानव अन्य के समृद्धि सम्पन्नता में सहायक होने के लिये प्रवृत्तशील रहता है।
  • न्याय प्रदायी क्षमता सम्पन्न मानव, अन्य को न्याय सुलभ होने के लिये प्रवृत्तिशील रहता है।
  • किसी उत्पादन-कार्य में पारंगत मानव अन्य को पारंगत बनाने के लिये प्रवृत्तिशील रहता है।
  • मानव स्वयं व्यवस्था में जीता हुआ समग्र व्यवस्था में भागीदारी करते हुए अन्य को व्यवस्था में भागीदारी के लिये प्रेरित करने में प्रवृत्तिशील रहता है।

इस विधि से हर प्रौढ़-पारंगत, स्वायत्त मानव अपने अर्हता के प्राप्तियों को स्थापित करने में प्रवृत्तिशील रहता है। मानव अपने परंपरा बनाने में प्रवृत्तिशील है चाहे यह अमानवीयता के सीमा में हो या मानवीयता-अतिमानवीयता के रूप में क्यों न हो?

मानवीयता और अतिमानवीयतापूर्ण ज्ञान, विवेक, दर्शन, विज्ञान पूर्वक हर व्यक्ति अपने को अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित करते हुए देखने को मिलता है। इसी आधार पर अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का उदय होता है। यह व्यवहारवादी समाजशास्त्र अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था को प्रतिपादित करता है और संतुष्ट है।