व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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आचरण पूर्णता के अनन्तर प्रामाणिकता और उसकी निरंतरता होती है। इसे भली प्रकार से अस्तित्व में समझा गया है। इन्हीं मूल ध्रुवों के आधार पर “व्यवहारवादी समाजशास्त्र” प्रस्तुत हुआ है। अनुबंध का तात्पर्य अनुक्रम से प्रतिबद्धित स्थिरता निश्चयता रहने से है। प्रतिबद्धता का तात्पर्य निष्ठा केन्द्र। निष्ठा का तात्पर्य हर विधाओं में न्यायपूर्ण व्यवहार, नियमपूर्ण कार्यों को सम्पन्न करने से है।

मानव सहज सभी संबंध पूर्णता को प्रतिपादित करने के लिये अनुबंधित रहने के कारण ही है। हर संबंधों का पहचान के साथ ही मूल्यों का उद्गमन जीवन सहज रूप में व्यक्त होता है। इसका मूल स्रोत जीवन अक्षय शक्ति, अक्षय बल सम्पन्न रहना ही है। यह भी हम समझ चुके हैं कि जीवन ही शरीर को जीवन्त बनाए रखता है और जीवन अपने आशयों को शरीर के द्वारा मानव परंपरा में, से, के लिये अर्पित करता है। पहला समझदारी को प्रमाणों के रूप में अर्पित करता है और प्रबोधनों के रूप में अर्पित करता है। प्रबोधन किसी को बोध के लिए अर्पित होता है और प्रमाण स्वतृप्ति और तृप्तिपूर्ण परंपरा के आशय में घटित होती है। यह जीवन जागृति की स्वाभाविक क्रिया है। जागृत मानव ही व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण होना पाया जाता है। व्यवस्था स्वयं में न्याय, उत्पादन और विनिमय सुलभता ही है। इन्हीं की निरन्तरता के लिये स्वास्थ्य-संयम और मानवीय शिक्षा-संस्कार एक अनिवार्य स्थिति है। इस प्रकार व्यवस्था का पाँच आयाम होता है। इन्हीं आयामों में भागीदारी, व्यवस्था में भागीदारी का तात्पर्य है। इस प्रकार हर जागृत मानव (परिवार मानव) सहज रूप में व्यवस्था को प्रमाणित करता है। यही अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था का आधार और अभिव्यक्ति है।