व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
इससे यह स्पष्ट हो गया है कि हर मानव चाहे नर हो चाहे नारी हो, स्वस्थ रहने के मापदण्ड अस्तित्व सहज सहअस्तित्व क्रम में स्वायत्त मानव के रूप में स्पष्ट किया जा चुका है। जिनमें ही मानवत्व रूपी स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार को स्वयं स्फूर्त विधि से प्रमाणित होना पाया गया है। ऐसा स्वायत्त मानव स्वस्थ मानव परिवार परंपरा में, व्यवहार परंपरा में, उत्पादन परंपरा में, विनिमय परंपरा में, स्वास्थ्य-संयम परंपरा में, मानवीयता पूर्ण शिक्षा-संस्कार परंपरा में और न्याय-सुरक्षा परंपरा में भागीदारी को निर्वाह करना ही समग्र व्यवस्था में भागीदारी का तात्पर्य है। यह समझदार परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था विधि से समाज रचना परिवार से ग्राम परिवार, ग्राम परिवार से विश्व परिवार तक और ग्राम स्वराज्य सभा से विश्व परिवार सभा तक इन सभी आयामों में भागीदारी का सूत्र, व्याख्या अग्रिम अध्यायों में स्पष्ट हो जाएगी।
सेवा :- उत्पादन-कार्य में भागीदारी ही श्रम नियोजन का प्रधान अवसर, संभावना व आवश्यकता है क्योंकि परिवार सहज आवश्यकता, शरीर पोषण, संरक्षण और समाज गति के अर्थ में उत्पादन का प्रयोजन स्पष्ट होता है। इनमें आहार, आवास, अलंकार और दूरदर्शन, दूरश्रवण और दूरगमन संबंधी वस्तु व उपकरण गण्य हैं। आवास, अलंकार और दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी उपकरणों के संबंध में स्वाभाविक रूप में ही मतभेद विहीन होना पाया जाता है। जहाँ तक आहार संबंधी बात है शाकाहार-मांसाहार भेद से पूर्वावर्ती समय काल युगों से अभ्यस्त होना पाया गया। इस मुद्दे पर यह देखा गया है मानवीयतापूर्ण समझदारी और शिष्टता के योगफल में जीने की कला प्रादुर्भूत होता ही है। जिसमें से एक आयाम आहार प्रणाली एवं वस्तुओं का चयन है।