व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
मानव परंपरा में सहअस्तित्व एक नित्य प्रभावी सूत्र है जिसके आधार पर अभयता (सकारात्मक रूप में वर्तमान में विश्वास) जिसका गवाही परिवार व्यवस्था में जीना और समग्र व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करना है। इस प्रकार जीने की कला और शैली में हिंसा विधि की आवश्यकता सर्वथा शून्य होना पाया जाता है। हिंसा-अहिंसा की निर्धारण रेखा जीवावस्था और प्राणावस्था के बीच में है। प्राणावस्था की रचनाएं रासायनिक-भौतिक स्वरूप में होते हुए उसका उपयोग-सदुपयोग, संतुलन के अर्थ में नैसर्गिक रूप में करता हुआ देखने को मिलता है। ज्ञानावस्था का मानव जीवावस्था से मांस प्राप्त करना कुछ समुदायों में वैध माना है कुछ समुदाय इसे अवैध मानते रहे हैं। इसका निराकरण मानवीयतापूर्ण मानसिकता से स्वयं स्फूर्त होता है कि :-
(1) जीव एवं मानव शरीर भी रासायनिक, भौतिक द्रव्यों से रचित हुआ है। इनमें निहित द्रव्य प्राणावस्था के रासायनिक, भौतिक द्रव्यों के समान ही है। इन्हीं तर्क के साथ मांसाहर की वकालत हुआ है। पूर्ववर्ती आदतें जीवों के जीवनी क्रम विधि में दिखाई पड़ने वाली मांसाहारी और शाकाहारी पशुओं से ग्रहित हुई है। इस प्रकार मानव समुदाय में आदतों के रूप में शुमार है।
(2) प्रत्येक जीव शरीर का संचालन एक जीवन ही करता है। जीवन का स्वत्व रूपी शरीर को बल और क्रूरतापूर्वक भक्षण कर लेने के क्रियाकलाप को मांसाहारी प्रणाली के रूप में देखा गया है। जीवन स्वत्व के रूप में मानव का शरीर भी है। सप्त धातुओं से रचित मेधस युक्त शरीर को जीवन संचालित करता ही है इसलिये जीवावस्था और ज्ञानावस्था प्रतिष्ठित है। ज्ञानावस्था के मानव शरीर रचना परंपरा में