व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
प्रतिफल रूपी स्वधन श्रम नियोजन और सेवा के प्रतिफल के रूप में देखा गया। श्रम नियोजन की नित्य संभावना और स्वरूप को सामान्य आकांक्षा एवं महत्वाकांक्षा सम्बंधी वस्तुओं को पाने की विधि से किया गया कुशलता, निपुणता, मानसिकता और विचार सहित किया गया हस्तलाघव कार्यकलाप। परस्पर सेवा का तात्पर्य यही है बिगड़े हुए वस्तु, यंत्रों, मानव तथा जीव शरीरों को सुधारना। इस विधि से श्रम नियोजन और सेवा दोनों ही स्पष्ट है। इन क्रियाकलाप के प्रतिफल में सामान्य आकांक्षा एवं महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुएं उपलब्ध होना ही सम्पूर्ण प्रतिफल कार्यकलाप है।
तथ्य :- मानवीयतापूर्ण विधि से अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी का होना प्रधान लक्ष्य है। इसी विधि में मौलिक अधिकार और इसी क्रम में मौलिक अधिकार का स्पष्टीकरण एक दूसरे को इंगित होता है, स्वीकृत होता है, जाँचने की विधि स्वयं स्फूर्त होता है। इसी क्रम में स्वायत्त मानव के वैभवों का परीक्षण जैसा- (1) स्वयं के प्रति विश्वास, श्रेष्ठता के प्रति सम्मान करने का अधिकार, प्रक्रिया और प्रमाण, (2) प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलनाधिकार प्रक्रिया और प्रमाण और (3) व्यवहार में सामाजिक एवं व्यवसाय में स्वावलंबनाधिकार, प्रक्रिया और प्रमाण एक दूसरे को समझ में आता है। समझ में आने का तात्पर्य जानने-मानने-पहचानने-निर्वाह करने से है। ऐसे मानव ही परिवार मानव और व्यवस्था मानव के रूप में प्रमाणित होना सहज है। यही सम्पूर्ण स्वत्व स्वतंत्रता और अधिकारों का वैभव और विस्तार है। इस प्रकार कर्तव्य दायित्व ही समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, भागीदारी के रूप में अधिकार है।