व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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नर-नारी के बीच विवाह संबंध का मूल-मुद्दा मानवत्व से प्रमाण सिद्धि, व्यवस्था एवं व्यवस्था में भागीदारी में दक्षता, जीवन ज्ञान, अस्तित्व दर्शन ज्ञान में पारंगत अधिकार यही तीन आधार रहेगा।

स्वायत्ततापूर्ण परिवार मानव अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था सूत्र से जीता-जागता हुआ परंपरा में नर-नारी का समानाधिकार, मानवत्व पर समानाधिकार होना स्पष्ट हो चुकी है। ऐसा अधिकार अर्थात् मानवीयता रूपी अधिकार, कल्पनाशीलता का तृप्ति बिन्दु रूपी परिवार मूलक स्वराज्य व्यवस्था में भागीदारी को निर्वाह करने में और कर्म स्वतंत्रता का तृप्ति बिन्दु के प्रमाण रूप में प्रामाणिकता पूर्वक स्वानुशासित होना, प्रमाणित करना ही है। इस मूल उद्देश्य को पीढ़ी से पीढ़ी में अर्पित करने के क्रम में संबंध-मूल्य-मूल्यांकन, उभयतृप्ति, तन-मन-धन रूपी अर्थ का सदुपयोग-सुरक्षा; स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार करना ही सम्पूर्ण व्यवहार है। जिसके फलस्वरूप समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व हर परिवार में प्रमाणित होना ही मानव परंपरा है। इसी में हर नर-नारी भागीदारी को निर्वाह करना है। समानाधिकार का प्रयोजन यही है। इन प्रयोजनों का परंपरा में होना स्वाभाविक है हर व्यक्ति स्वायत्त होने के फलस्वरूप पराधीनता, परतंत्रता दोनों का उन्मूलन हुआ रहता है। इसके विपरीत परिवार मानव और व्यवस्था मानव के रूप में नित्य योजना हर नर-नारी के सम्मुख स्पष्ट रहता है। इसलिये विवाहोत्सव समय में पारितोष रूप में वस्तुओं का आदान-प्रदान स्वयंस्फूर्त विधि से जो कुछ भी मात्रा के रूप में हो पाता है, वही अधिकाधिक होना स्वाभाविक है। इस प्रकार विवाहोत्सव समय में आडम्बर के लिये किये जाने वाले व्यय अपने आप संयमित होता है। सार्थक कार्यो में