व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
समृद्धिपूर्ण मेधस रचना प्रमाणित हो चुकी है। इसी कारणवश मानव अपने दृष्टा पद प्रतिष्ठा सहज रूप में ज्ञानावस्था, जीवावस्था, प्राणावस्था और पदार्थावस्था का अध्ययन करता है, किया है, इसी के प्रमाण में हिंसा और अहिंसा के विभाजन रेखा का दृष्टा भी मानव ही है।
इसका तात्पर्य यही हुआ कि प्राणावस्था के उपरान्त जीवावस्था और स्वेदज संसार सब मांसाहार या मांसाहार के तुल्य में गण्य हो जाता है। यद्यपि स्वदेज संसार की वस्तुयें माँस, वनस्पति नहीं होते हुए भी उसका सहअस्तित्व संयोजन विधि से सार्थक होना देखा गया है।
मांसाहार विधि से चला हुआ ज्ञानावस्था की इकाई मानव के लिए हिंसक-घातक होना देखा गया है। उसी के साथ यह भी देखा गया कि शाकाहारी भी हिंसक-घातक होना देखा गया। इससे बहुत स्पष्ट है केवल आहार विधि ही मानवीयता सहज सम्पूर्णता नहीं है। आहार एक आयाम है। इसके पहले यह भी स्पष्ट हो चुकी है ज्ञानावस्था की इकाई समझने के उपरान्त ही सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार विन्यास करने योग्य है और बहुआयामी अभिव्यक्ति है। इसलिये यह इस विश्लेषण से स्पष्ट हो चुकी है कि चाहे शाकाहारी हो, चाहे मांसाहारी हो, पशुमानव, राक्षसमानव के अर्हता में दोनों प्रकार की आदतें समान दिखाई पड़ती है वहीं मानवीयतापूर्ण मानव के रूप में जीने की कला के अंगभूत आहार पद्धति चयन करने के क्रम में मानव शरीर रचना शाकाहारी पद्धति के योग्य बना है, इसके विपरीत कुछ भी सोचना, भ्रमित मानस होना स्पष्ट हो चुका है।
जितने भी शाकाहारी वस्तुएं है इसमें मानव का श्रम नियोजन अति अनिवार्य रहता ही है। श्रम नियोजन का