व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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गति होना स्वाभाविक है। अतएव आहार, प्रणाली, पद्धति को अपनाने का आधार मानवीयतापूर्ण मानव परंपरा में से के लिए पशुमानव, राक्षस मानव का प्रवृत्ति आधार नहीं हो पाता है। केवल मानवीयतापूर्ण मानव ही स्पष्टतया आधार हो पाता है।

मानवीयतापूर्ण नजरिये से सम्पूर्ण प्रकार के मांसाहार, हिंसा के सूत्र से सूत्रित हो जाता है। फलस्वरूप मानव मानव के साथ भी हिंसा, द्रोह, विद्रोह, शोषण में लिप्त होना विगत के इतिहास के अनुसार देखा गया है। इस बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक तक भी इसी प्रकार की गवाहियाँ देखा गया। समझदारी पूर्वक पता चलता है कि शाकाहारी पशु ओंठ से पानी पीते हैं तथा मांसाहारी पशु जीभ से। इन्हीं के अनुसार दोनों में भिन्न-भिन्न प्रकार के दांत, नाखून बने रहते हैं साथ में यह भी स्पष्ट हो चुका है कि मांसाहारी पशुओं की आँते छोटी और शाकाहारी पशुओं की आँते लम्बी होती है।

शाकाहार सदा ही आवर्तनशीलता, ऊर्जा संतुलन, उर्वरक कार्यों में गुणवत्ता के आधार पर सूत्रित रहता है। कृषि कार्यों के आधार पर पशुपालन, पशुपालन के आधार पर कृषि कार्य में पूरकता स्वाभाविक रूप में देखा गया है। इसी के साथ-साथ मानवकृत वातावरण का संतुलन, नैसर्गिक संतुलन में भागीदारी भी सहअस्तित्व सहज कार्यकलापों का एक अविभाज्य वैभव रहा है। ये सब पूरक विधि से ही प्रमाणित हो पाता है। हिंसा, शोषण और दोहन विधि से पूरकता, आवर्तनशीलता प्रमाणित नहीं हो पायी है। अतएव मानवीयतापूर्ण परंपरा स्वायत्तता पूरकता व आवर्तनशीलता का संतुलित संगीत विधि से ही समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को प्रमणित करता है। यह सर्वमानव में स्वीकृत