व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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नियोजन पूरक विधि से अर्थात् जिस विधा से मानव का श्रम नियोजन होता है अथवा जिस वस्तु पर मानव का श्रम नियोजन होता है उसका संरक्षण होना दयापूर्ण कार्य का तात्पर्य है। हर उत्पादन में सहअस्तित्व विधि से वस्तु व द्रव्यों का सुरक्षा पूर्वक ही प्रतिफल की प्राप्ति और संतुलन का प्रमाण स्वाभाविक रूप में प्रमाणित होता है। दूसरी विधा में मानव-मानव के साथ व्यवहार करता ही है। व्यवहार क्रम में तन-मन-धन रूपी अर्थ का सदुपयोग करना किसी का पोषण, संरक्षण, समाज गति के रूप में सदुपयोग होना प्रमाणित होता है। इस क्रम में यही मानव के साथ दयापूर्ण व्यवहार का तात्पर्य है। यही जीने देकर जीने का प्रमाण है।

नैतिकता - नैतिकता अपने आप में धर्म और राज्य नैतिकता के रूप में देखा जाता है। धर्म शब्द व्यवस्था का मूलवाची है। व्यवस्था की आवश्यकता, अनिवार्यता मानव में, से, के लिये है। मानव अपने में इकाई है इसलिये अखण्ड समाज के अर्थ में व्यवस्था; सार्वभौम व्यवस्था के अर्थ में अखण्ड समाज, संतुलित होता है। सम्पूर्ण नैतिकता का सहज अभिव्यंजना (अभ्युदय के लिये व्यंजित होना) सर्व स्वीकृति के रूप में होता है। समाज की परिभाषा पूर्णता के अर्थ में, पूर्णता के लिये, पूर्णता में, पूर्णता से निष्ठा और उसकी निरंतरता से है। राज्य का तात्पर्य वैभव से है। मानव सहज वैभव समाधान, समृद्धि, अभय और सहअस्तित्व ही है। अस्तु, धर्म अपने मूल रूप में सर्वतोमुखी समाधान है। राज्य अपने मूल रूप में समाधान सहित समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व और उसकी निरन्तरता है। इस प्रकार राज्य और धर्म का मूलरूप प्रत्येक व्यक्ति को समझ में आता है। इन्हीं के प्रतिपादन में नीति को पहचाना जाता है। धर्म और राज्य का प्रतिपादन मानव ही करता है। ऐसा प्रतिपादन करने का