व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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‘सम्पूर्ण मानव समुच्चय’ एक क्रिया है। इसी का नामकरण है ‘मानवीयतापूर्ण क्रिया’। मानवीयतापूर्ण क्रिया सहज प्रमाण है। मानव परंपरा सहज चारों आयामों में यथा शिक्षा, संस्कार, संविधान और व्यवस्था में मानवीयता निरंतर रूप में अथवा परंपरा के रूप में प्रमाणित रहना। इस प्रकार मानवीयता उक्त चारों आयामों में क्रियाशील रहना ही परंपरा रूपी गति सार्थक होना पाया जाता है। दूसरे विधि से प्रत्येक जागृत मानव अपने विचार और अनुभव समुच्चय विधि से स्थिति है और व्यवहार तथा प्रयोग विधि से गति है। तीसरा, जागृत जीवन सहज रूप में आस्वादन, तुलन, चिंतन, बोध, अनुभव स्थिति है और आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, प्रामाणिकता के रूप में निरंतर गति है। सम्पूर्ण मानव समाज के रूप में स्थिति है और व्यवस्था के रूप में गति है। चौथे विधि से, सत्ता में संपृक्त रूप में अस्तित्व नित्य स्थिति है और सहअस्तित्व नित्य गति है।

प्रत्येक अणु, प्रत्येक परमाणु के अणुबंधन सहज स्थिति और भारबन्धन सहज गति है। सम्पूर्ण अणुएँ रचना के रूप में स्थिति और परिणाम परिवर्तन की ओर गति दिखाई पड़ती है। प्रत्येक वनस्पतियाँ अपने रूप और गुण के अनुसार गति एवं स्वभाव, धर्म के अनुसार स्थिति में होना पाया जाता है। सम्पूर्ण जीव भी रूप और गुण के आधार पर गति और स्वभाव एवं धर्म के आधार पर स्थिति में होना पाया जाता है।

मानव अपने मूल्यों के रूप में स्थिति, संबंध और व्यवहार के रूप में गति का होना पाया जाता है। समाधान के रूप में स्थिति एवं व्यवस्था के रूप में गति है।