व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
मूल्यों के धारकता के रूप में स्थिति और वाहकता सहित मूल्यांकन के रूप में गति, जागृत दृष्टि के रूप में स्थिति, दर्शन के रूप में गति, जीवन के रूप में स्थिति, प्रामाणिकता के रूप में गति। उद्देश्यों के रूप में स्थिति, कार्य-व्यवहारों के रूप में गति, मानव के रूप में स्थिति, प्रयोजनों के रूप में गति। समझदारी (जानना, मानना, पहचानने) के रूप में स्थिति, निर्वाह करने के रूप में गति, मानव के रूप में स्थिति, मानव जाति के रूप में गति। पुनः मानव के रूप में स्थिति, मानव धर्म (व्यवस्था) के रूप में गति होना पाया जाता है। इसलिये मानव का मौलिक अधिकार है समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्वपूर्वक प्रमाणित होना ही मानव परिभाषा का नित्य प्रमाण है।
1.4 मानव, मानवीयतापूर्ण आचरण जो स्वधन, स्वनारी/स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य-व्यवहार, संबंधों की पहचान व मूल्यों का निर्वाह; तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग व सुरक्षा के रूप में मानवीयता की व्याख्या है। यह मानव परंपरा में मौलिक विधान है।
व्याख्या - अस्तित्व में प्रत्येक इकाई अपने आचरण रूपी व्याख्या सहित ही अपने-अपने ‘त्व’ को प्रमाणित करता हुआ देखने को मिलता है। इसी क्रम में सम्पूर्ण जागृत मानव ‘मानवत्व’ को अपने आचरणपूर्वक प्रमाणित करना स्वाभाविक है, व्यवहारिक है और अपेक्षित है। मानव प्रकृति ही जीवन जागृति पूर्वक मानवत्व को आचरण में प्रमाणित करना होता है। अन्य प्रकृति यथा पदार्थावस्था में प्रकृति परिणामानुषंगीय विधि से अपने-अपने ‘त्व’ को आचरणों में प्रमाणित करता हुआ देखने को मिलता है। यथा दो अंश का परमाणु अपने निश्चित विधि से आचरण करता है। इसका तात्पर्य यह हुआ