व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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धरती अपने स्थिति सहज रूप में अपने धुरी में गतित रहते हुए सूर्य के सभी ओर अपने गतिपथ में आरूढ़ रहता हुआ दिखाई पड़ता है। यह सौर व्यूह अपने में एक व्यवस्था के रूप में दृष्टव्य रहते हुए, अनेक सौर व्यूह के साथ सहअस्तित्व सहज स्थिति-गति को और पूरकता को प्रमाणित करता ही है। इसका प्रमाण यही है एक अनेक पर और अनेक एक पर प्रतिबिम्बित प्रमाणित है ही। साथ ही प्रभाव क्षेत्र और महिमा (कार्य महिमा-गति महिमा) जिसमें से गति महिमा ही प्रभाव और पूरकता के रूप में दिखाई पड़ता है। परस्परता में आदान-प्रदान होती ही है। अस्तित्व में स्वभाव गति और उसकी निरंतरता के लिये सम्पूर्ण पूरकता स्पष्ट है। पूरकता विधि से ही मानव भी स्वभाव गति में, धरती भी स्वभाव गति में होना सहज है। जैसा मानव परंपरा हर मानव के पूरक होने के प्रमाण में ही हर मानव जागृत होता है, हो सकता है। इसी प्रकार यह धरती अन्य ग्रह-गोलों के पूरकता के प्रमाण स्वरूप विकसित हुआ होना पाया जाता है। धरती के विकास का तात्पर्य यही है अथवा हर धरती के विकास का तात्पर्य इतना ही है चारों अवस्था में प्रकृति प्रमाणित है। जैसे-इस धरती पर पदार्थ, प्राण, जीव एवं ज्ञान अवस्थाएँ प्रमाणित हैं ही। इन चारों अवस्था में पूरकता और उसकी निरन्तरता के लिये मानव में मानवीयतापूर्ण आचरण अनिवार्य स्थिति है। मानव अपने पूरकता को अन्य प्रकृति के साथ और मानव प्रकृति के साथ प्रमाणित करने के क्रम में ही व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी प्रमाणित हो पाता है। इसी विधि से मानव से आशित, प्रतीक्षित, अभिप्सीत व्यवस्था परंपरा इस धरती पर स्थापित और फलित होना सहज है।