व्यवहारवादी समाजशास्त्र
by A Nagraj
जागृत मानसिकता पूर्वक ही परिवारगत उत्पादन कार्य में एक-दूसरे का पूरक होना स्वाभाविक है। जीवन शक्तियाँ अक्षय होने और शरीर की और समाज गति की आवश्यकता अपने में सीमित है। इसी आधार पर हर परिवार अपने में समृद्ध होने की व्यवस्था सहज है। यह सहजता जागृति पूर्वक हर मानव में समझ रूप में, विचार रूप में, कार्य रूप में और व्यवहार रूप में प्रमाणित होना ही जागृत परंपरा का विशालता और उसका प्रमाण है। प्रमाण स्वयं में प्रभाव क्षेत्र का द्योतक है। इस क्रम में मानव अपने परिभाषा के अनुरूप मौलिक अधिकार सम्पन्न है।
1.3 मानव, अपनी परिभाषा के अनुरूप बौद्धिक समाधान तथा भौतिक समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व में प्रमाण का स्रोत व प्रमाण परंपरा है। यह मौलिक विधान है।
व्याख्या - अस्तित्व में प्रत्येक ‘एक’ अपने सम्पूर्णता सहित ‘क्रिया और व्याख्या’ है। क्योंकि प्रत्येक एक स्थिति-गति में होना पाया जाता है। स्थिति में क्रिया एवं गति में व्याख्या। स्थिति-गति सहित ही ‘त्व’ सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी (पूरकता या पूरक) होना पाया जाता है। प्रत्येक एक अपने स्थिति में क्रिया होना दिखाई पड़ता है। हर क्रिया अपने गति सहित स्थिति एवं स्थिति सहित गति के रूप में होना पाया जाता है। जैसे-एक जागृत मानव किसी भी स्थिति में कहीं भी हो, स्थिति-गति के संयुक्त रूप में होता है। मानव अपने में आशा, विचार, इच्छा, संकल्प और प्रामाणिकता सहज गति और आस्वादन, तुलन, चिंतन, बोध एवं अनुभव सहज स्थिति के संयुक्त रूप में रहता ही है। इन्हीं का किसी न किसी स्थिति या गति सहज प्रकाशन शरीर के द्वारा सम्पन्न होता ही रहता है। इसी प्रकार यह