व्यवहारवादी समाजशास्त्र

by A Nagraj

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1.2 मानव परिभाषा के रूप में “मनाकार को सामान्य आकांक्षा व महत्वाकांक्षा संबंधी वस्तुओं और उपकरणों के रूप में तन, मन सहित श्रम नियोजनपूर्वक साकार करने वाला, मनः स्वस्थता अर्थात् सुख, शांति, संतोष, आनन्द सहज अपेक्षा सहित आशावादी है। यह मानव परंपरा में मौलिक विधान है।”

व्याख्या - समृद्धि सर्वमानव स्वीकृत मानसिकता, विचार, इच्छाएँ है। दूसरे विधि से समृद्धि की आशा, समृद्धि के विचार एवं समृद्धि की इच्छा हर वयस्क मानव में कार्यरत रहना पाया जाता है।

आवश्यकता और उसकी तादात, संभावना, उपलब्धि और तृप्ति ही समृद्धि योजना का आधार है। इन पाँचों अवयवों का पूरकता और उसकी निरंतरता ही समृद्धि परंपरा है। परंपरा का मूल रूप ‘कम से कम और ज्यादा से ज्यादा’ परिवार ही है। परिवार ही मूलतः सभा, समाज और व्यवस्था का स्वरूप है। परिवार में संस्कृति-सभ्यता, सभा में विधि-व्यवस्था प्रमाणित होना जागृति है।

परिवार की पहचान, उसकी विशालतमता ही समाज का स्वरूप है। व्यवस्था अपने में न्याय, उत्पादन, विनिमय, स्वास्थ्य-संयम और शिक्षा-संस्कार सुलभता ही है और समाज अपने आप में संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभय तृप्ति विधि ही जागृति का साक्ष्य है। इसी उभय तृप्ति का नामकरण ही ‘न्याय’ है। यह सभी परिवार में हो सकता है, आवश्यकता है, यह सर्वविदित है।

इसका स्त्रोत निरंतर जागृत परिवार है। दूसरा जागृत परिवार और उसके संतुलन के लिए मानवीय शिक्षा-संस्कार परंपरा ही है।