व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र विवेक व विज्ञान सम्मत विचार तथा क्रिया का परिपूर्ण ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है ।
:: परिपूर्ण ज्ञान ः- क्रिया के नियम एवं प्रक्रि या की समझ, विचार के कारण तथा नियम की समझ को ‘परिपूर्ण ज्ञान’ संज्ञा है ।
ः- परिपूर्ण ज्ञान मात्र विज्ञान एवं विवेक के अध्ययन से सम्पन्न होता है जिसमें पारंगत होने पर एक से अधिक तक का जीवन सफल होता है ।
श्र सह-अस्तित्व ज्ञान सम्मत विज्ञान एवं विवेक के अध्ययन से ही अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित होता है ।
:: परिपाक ः- किसी घटना के लिए की गई विविध प्रक्रिया का संयुक्त परिणाम फल ही परिपाक है ।
श्र पदार्थ, वनस्पति, जीव एवं मानवों में पाई जाने वाली घटनाएं क्रमश: परिणामकृत, ऋतुक्रम, विषयक्रम तथा ईषणाक्रम से ही होती है ।
श्र सापेक्षता; दृष्टि, दृश्य और दर्शन के भेद से है ।
श्र दृष्टा, महत्तत्व, पुरुष, केन्द्रीय, स्वस्वरूप, अधिष्ठान, सहज, सर्वज्ञ, आत्मा यह सब एक ही की पर्यायवाची संज्ञाएं हैं । इन सब संज्ञाओं से संबोधित या निर्देशित एक ही तत्व है, वह चैतन्य परमाणु सहज मध्यांश है ।
श्र प्रकृति में ही भौतिक रासायनिक वस्तु, वनस्पति तथा संवेदना व संज्ञानीयता की प्रेेरणा, कल्पना, क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रभाव,व्यंजना, क्रांति तथा समाधान जैसी परिपाकात्मक प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं ।
श्र समस्त पदार्थ परिणाम-घटना-क्रम से, समस्त वनस्पति ऋतु-घटना-क्रम से, समस्त जीव विषय-घटना-क्रम से तथा समस्त मानव जीवन संस्कार-घटना-क्रम से व्यस्त है ।
श्र प्रतिक्रांति से भ्रांति तथा कर्त्तव्य से शांति है ।
श्र मध्यस्थ, केन्द्रीय होने के कारण ही ज्ञान का स्पर्श सर्वतोमुखी समाधान रूप में प्राप्त करता है । आत्मा की मध्यस्थता, मात्र व्यवहारिक व वैचारिक एकसूत्रता से प्रमाणित है ।
श्र विहित प्रवृत्तियों से समाधान तथा अविहित प्रवृत्तियों से समस्या का प्रसव होता है ।
:: समाधान से तात्पर्य है विवेक विज्ञान सम्मत विचार व प्रवृत्तियाँ । विषमता सहित विचार समस्या है, यही क्षोभ है । क्षोभ का तात्पर्य दूसरों के प्रभाव से क्षुब्ध हो जाना ही है अथवा अपने व्यवहार से दूसरों को क्षुब्ध करना ही है ।
:: मोह का तात्पर्य है दूसरों के प्रभाव में स्वयं का खो जाना ।