व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र आत्म-तत्व (स्व-स्वरूप) को भी साम्य-सत्ता अनवरत सुलभ एवं एक सी प्राप्त है, जिसको वह अनुभव करने में सक्षम है, इसीलिए आत्मा में विकार अर्थात्, सम-विषमात्मक क्रियाएं नहीं पाई जाती । विकार और विषमता अपेक्षाकृत परिमाण, क्रिया एवं सम, विषम शक्ति में ही पाए जाते हैं ।
श्र मन के पूर्वापरानुषंगी प्रभाव एवं दबाव भेद से आसक्ति, विवशता एवं प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं, जिसके अनुसार ही क्रिया फल परिणाम सम्पन्न होता है ।
श्र अनुक्रम से प्राप्त समझदारी की ‘अनुभव’ संज्ञा है ।
:: पूर्वापर ः- पर का तात्पर्य शरीरमूलक, पूर्व अर्थात् अनुभव मूलक आत्मानुषंगी ।
:: अनुक्रम ः- क्रिया-प्रक्रिया परिणाम, परिवर्तन, परिमार्जन के पूर्ण चक्र को ‘अनुक्रम’ संज्ञा है ।
श्र मन से पूर्व अर्थात् वृत्ति, चित्त, बुद्धि एवं आत्मा से प्राप्त प्रेरणा को न्याय सहज ‘पूर्वानुक्रम’ तथा संवेदना (प्राण) से प्राप्त दबाव विवशता और प्रवृत्ति को ‘परानुक्रम’ संज्ञा है । पूर्वानुक्रम एवं आसक्ति रूपी परानुक्रम भेद के आधार पर ही मानवीय एवं अमानवीय व्यवहार का वर्गीकरण है ।
श्र मन जब क्रम से प्राण, हृदय, शरीर तथा व्यवहार से दबाव पाता है, तब इसे ‘परानुक्रम’ संज्ञा है । परानुक्रम से प्राप्त दबाव के कारण चयन भी तदनुसार होता है ।
श्र मन प्राण से मिलकर बल का; प्राण, हृदय से मिलकर तृप्ति का; हृदय शरीर के द्वारा मिलकर विषयों का सेवन करने में व्यस्त है, जिसकी पूर्ति नहीं है । इसीलिये मानव ने वर्णित क्रिया-सीमांत तक व्यस्तता एवं श्रम का आभास किया है ।
श्र पूर्वानुशासित स्थिति में मन एवं वृत्ति की निर्विरोधिता के फलस्वरूप ही सुख की अनुभूति उपलबॅध होती है । वृत्ति व चित्त की निर्विरोधिता में शांति की, चित्त व बुद्धि की निर्विरोधिता में संतोष,बुद्धि और आत्मा में निर्विरोधिता आनंद के रूप में अनुभूत होता है । सुख, शांति, संतोष, आनंद की अनुभूति ही मन:स्वस्थता है ।
श्र मन: स्वस्थता सहित किया गया मनाकार साकार, सार्थक और प्रयोजनशील होना पाया जाता है । अस्तु मनाकार भेद से प्रवृत्ति, प्रवृत्ति भेद से भ्रांत निर्भ्रांत अवस्था, अवस्था भेद से लक्ष्य, लक्ष्य भेद से नियंत्रण, नियंत्रण भेद से नीति, नीति भेद से निष्ठा, निष्ठा भेद से आशय तथा आशय भेद से मन: स्वस्थता के आधार पर मनाकार साकार होता है ।
श्र स्थिति व क्रिया मात्र को जानने में जो अपूर्णता है, वह रहस्य है ।
श्र रहस्यता का निवारण मात्र यथार्थ दर्शन से ही है ।
श्र यथार्थ दर्शन से ‘निश्चय’ है, अन्यथा अनिश्चयवादी प्रवृत्ति के कारण संशय बना ही रहता है ।