व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र रूप, बल एवं बुद्धि का विकास आहार, विहार व व्यवहार की संयमता पर है ।

श्र लोक सेवन से ‘प्रेय’ और लोकेशानुभूति (सहअस्तित्व में अनुभूति) से ‘श्रेय’ सिद्धियाँ उपलब्ध होती है ।

श्र बदलने वाली दृष्टि की ‘अनित्य दृष्टि’ संज्ञा है । ये प्रियाप्रिय, हिताहित व लाभालाभ दृष्टियाँ हैं । न बदलने वाली दृष्टि की ‘नित्य दृष्टि’ संज्ञा है । ये न्याय, धर्म व सत्य दृष्टियाँ हैं । बदलने वाली दृष्टि से क्षोभ होना अनिवार्य एवं स्वाभाविक है ।

श्र सत्य निरूपण कला की ‘पूर्ण कला’ तथा इससे भिन्न की ‘अपूर्ण कला’ संज्ञा है ।

श्र न्याय से पद, उदारता से धन, दया पूर्वक बल, सच्चरित्रता से रूप तथा विज्ञान व विवेक से बुद्धि, निष्ठा से अध्ययन, कर्त्तव्य से सेवा, संतोष से तप, स्नेह से लोक, प्रेम से लोकेश, आज्ञा पालन से रोगी एवं बालक की सफलता एवं कल्याण सिद्ध है ।

“सर्व शुभ हो”

अध्याय - पंद्रह

मानव सहज न्याय

श्र मानव समुदाय न्याय तथा अवसर भेद से प्रवृत्त रहना स्पष्ट है ।

:: आश्रयः- जिससे जिसका अस्तित्व या व्यवहार नियंत्रित है, वह उसका ‘आश्रय’ है ।

श्र आश्रित के आश्रय पाने के नियम की ‘नियंत्रण’ संज्ञा है ।

श्र न्यायाश्रित मानव मात्र सत्यासत्य, धर्माधर्म तथा न्यायान्याय के ज्ञाता, व्यवहारिक एकसूत्रता स्थापित करने में कुशल व निर्दोष जीवन में रत रहते हैं, जिससे ही मानवीयता संरक्षित है ।

श्र अवसरवादी मानव प्रियाप्रिय, हिताहित, लाभालाभ से ग्रसित तथा व्यवहार में दिखावा करते हैं । जिनसे असंतुष्टि, व्याकुलता व अनिश्चयता की पीड़ा ही उपलब्ध होती है, क्योंकि अज्ञान की मान्यताएँ शीघ्र परिवर्तनशील है । अवसरवादी मानव के कर्त्तव्य का लक्ष्य भी सुख है, पर वह इस प्रणाली से सफल नही ं होता ।

श्र व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय जीवन में क्लेश, कलह व आतंक उत्पन्न करने वाली समस्त प्रवृत्ति को ‘सदोष विचार’ या ‘अवसरवादी विचार’ और हर्ष, उत्साह, सहअस्तित्व,