व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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अध्याय - एक

सहअस्तित्व

श्र मैं नित्य, सत्य, शुद्ध एवं बुद्ध व्यापक सत्ता में सम्पृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति को अनुभव पूर्वक स्मरण करते हुए “मानव व्यवहार दर्शन” का विश्लेषण करता हूँ ।

:: नित्य ः- सदा-सदा एक सा विद्यमान है ।

:: सत्य ः- सदा-सदा एक सा भास-आभासमान एवं अनुभवगम्य है ।

:: शुद्ध ः- सदा-सदा एक सा सुखप्रद (अनुभव में) है ।

:: बुद्ध ः- सदा-सदा एक सा बोधगम्य है ।

:: व्यापक सत्ताः- सदा-सदा प्रकृति होने और न होने के स्थलों में वैभव ।

सत्ता, जड़-चैतन्य में पारगामी व परस्परता में पारदर्शी है । सत्तामयता को परमात्मा, ईश्वर, लोकेश, चेतना, शून्य, निरपेक्ष ऊर्जा, पूर्ण संज्ञा है ।

:: सम्पृक्त ः- सत्ता में डूबा, भीगा, घिरा हुआ जड़-चैतन्य प्रकृति है । यही सहअस्तित्व है, सहअस्तित्व ही नित्य है, यही ज्ञान है । सहअस्तित्व में ही नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, परम सत्य स्पष्ट हैं ।

:: जड़ ः- इकाईयाँ जो अपनी लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई की सीमा में क्रियाशील हैं ।

:: चैतन्य ः- इकाईयाँ जो अपने लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई की सीमा से अधिक स्थली में पुँजाकार रूप में क्रियाशील हैं । यहाँ स्थली का तात्पर्य सत्तामयता है ।

श्र जागृत मानव ही दृष्टा पद प्रतिष्ठा में गण्य है ।

:: मानव ः- मनाकार को साकार करने तथा मन: स्वस्थता का आशावादी और प्रमाणित करने वाले को मानव संज्ञा है ।

:: व्यवहार ः- एक से अधिक मानव एकत्र होने के लिए अथवा होने में जो श्रम नियोजन है उसे व्यवहार संज्ञा है ।

:: दर्शन ः- दृष्टि से प्राप्त समझ, अवधारणा और अनुभव ही दर्शन है ।

:: दृष्टि ः- वास्तविकताओं को देखने, समझने, पहचानने और मूल्यांकन करने की क्रिया की दृष्टि संज्ञा है ।