व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
अध्याय - दो
कृतज्ञता
श्र मैंं कृतज्ञता पूर्वक उन सुपथ प्रदर्शकों की वंदना करता हूँ, जिनसे यथार्थता के स्रोत आज भी जीवित हैं ।
:: कृतज्ञता:- उन्नति और जागृति के लिये प्रेरणा और सहायता की स्वीकृति ।
:: सुपथ:- समाधान, समृद्धि, अभय व सहअस्तित्व की ओर निश्चित दिशा ।
:: उन्नति :- उत्थान (समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व) के लिए प्राप्त प्रेरणा व सहायता ।
:: यथार्थता के स्रोत (अकृत्रिमता पूर्वक अथवा आडंबरहीन) वास्तविकतापूर्ण ढंग से की गई अभिव्यक्ति अथवा प्रयास । सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति रूपी सहअस्तित्व को स्पष्ट करना ही यथार्थता का स्त्रोत है ।
:: स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य व वस्तुगत सत्य को बोध कराने की परम्परा ही यथार्थता के स्रोत हैं ।
:: वंदना :- गौरवता को व्यक्त करने हेतु प्रयुक्त चेष्टा ।
:: गौरवता:- निर्विरोध पूर्वक अंगीकार किये गये अनुकरण, प्रयास, प्रवृत्ति ही गौरवता है ।
श्र कृतज्ञता से गौरवता, गौरवता से सरलता, सरलता से सहजता, सहजता से मानवीयता, मानवीयता से सहअस्तित्व तथा सहअस्तित्व में से, के लिए कृतज्ञता प्रकट होती है ।
:: सरलता :- अभिमान से रहित और यथार्थता को व्यक्त करने की विचार व व्यवहार पद्धति ही सरलता है ।
:: अभिमान :- आरोपित मानदण्ड, यही अधिमूल्यन, अवमूल्यन, निर्मूल्यन दोष है ।
:: सहजता :- आडंबर तथा रहस्यता से मुक्त न्यायपूर्ण व्यवहार व रीति ही सहजता है ।
:: सहअस्तित्व ः- परस्परता में निर्विरोध सहित समाधानपूर्ण अभिव्यक्ति ही सहअस्तित्व है ।