व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
अध्याय - तीन
सृष्टि-दर्शन
श्र मानव ने सृष्टि दर्शन करने की कामना व प्रयास किया है, यथा जीव-जगत, ईश्वर और स्वयं को प्रतिपादित व व्याख्यायित करने का प्रयास किया है ।
:: सृष्टि :- पदार्थ का संगठन एवं रचना और समृद्ध धरती तथा धरती पर प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था का प्रकाशन सृष्टि है ।
श्र सृजन, विसर्जन, पोषण अथवा शोषण के भेद से सृष्टि दर्शन है ।
:: सृजन :- इकाई+इकाई ।
:: विसर्जन ः- इकाई-इकाई ।
:: पोषण :- इकाई+अनुकूल इकाई ।
:: शोषण :- इकाई-अनुकूल इकाई ।
:: पदार्थ :- पद भेद से अर्थ भेद को स्पष्ट करने वाली वस्तु की पदार्थ संज्ञा है । वस्तु का अर्थ वास्तविकता ही है ।
श्र निरपेक्ष ऊर्जा व पदार्थों के सहअस्तित्व में ही सृष्टि कार्य है ।
:: निरपेक्ष ऊर्जा ः- जो व्यापक रूप में सहज सत्ता अस्तित्व है पर जिसके उत्पत्ति का कारण सिद्ध न हो, उसकी निरपेक्ष ऊर्जा संज्ञा है ।
श्र निरपेक्ष ऊर्जा शून्य की स्थिति में सर्वत्र व्याप्त है ।
:: शून्य:- जो स्वयं में क्रिया नहीं है पर सभी क्रियायें जिसमें समाहित (आवेष्टित एवं आश्लिष्ट) हैं की शून्य संज्ञा है ।
श्र सापेक्ष एवं निरपेक्ष भेद से ऊर्जा है । इसे सापेक्ष ऊर्जा व निरपेक्ष ऊर्जा के रूप में पहचानना और समझना होता है । कार्य ऊर्जा सापेक्ष है तथा व्यापक रूप में निरपेक्ष ऊर्जा नित्य वर्तमान है ।
:: सापेक्ष ऊर्जा :- ईकाइयों की परस्परता के बिना जिस शक्ति का प्रगटन न हो, वह सापेक्ष ऊर्जा है ।
भौतिक रासायनिक वस्तुओं की परस्परता में अथवा परस्परता वश प्रगट होने वाली