व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र कारण एवं सूक्ष्म शरीर के अनुसार इच्छाएँ हैंं, कारण और सूक्ष्म क्रिया अविभाज्य है । तथा सूक्ष्म एवं स्थूल शरीर के अनुसार व्यवहार कार्य है ।
श्र स्थूल पिण्ड का योग सूक्ष्म से प्राण के द्वारा है ।
श्र सूक्ष्म एवं कारण शरीर का योग चित्त के द्वारा है । कारण एवं सूक्ष्म शरीर (क्रिया) अविभाज्य है ।
श्र जागृत जीवन में आत्मा अनवरत ज्ञान में ओतप्रोत है ।
श्र विषय-वासनावश मानव में संघर्ष है । ईषणात्रय मेें जन बल व धनबल आवश्यकतावश व्यवस्था में प्रवृत्ति स्पष्ट है । व्यवस्था के मूल में अध्ययन व प्रयोग है, जिससे ही विकास और जागृति का प्रमाण संभव हुआ है ।
श्र ईर्ष्या तथा द्वेष के मूल में भ्रम ही है और ह्रास की ओर गति है ।
श्र संकीर्णता में प्रयुक्त अर्थ की स्वार्थ, विशालता में प्रयोजित अर्थ की परार्थ तथा सार्वभौमिकता के अर्थ में प्रयुक्त अर्थ परमार्थ है ।
श्र बल, धन, पद तथा यश के भेद से उपलब्धियाँ (लाभ) हैंं । विज्ञान एवं विवेक के भेद से अध्ययन है, जो बुद्धि की क्रिया है । रूप जन्म-सिद्ध है ही ।
श्र पात्र एवं कुपात्र को प्रदत्त पद एवं अधिकार-भेद से नियोजन है ।
श्र संघर्ष व उत्पादन-भेद से बल की प्रयुक्ति है ।
श्र उपभोग, सदुपयोग तथा उत्पादन-भेद से अर्थ का नियोजन है ।
श्र लोक एवं लोेकेश भेद से लक्ष्य है ।
श्र एक मानव से अनंत मानव तक किए गए समस्त व्यवहारों व कार्यों से समस्या या समाधान की ही उपलब्धि है ।
श्र हृदय तृप्ति के लिए; प्राण बल के लिए; मन सुख के लिए; वृत्ति शांति के लिए; चित्त संतोष के लिए; बुद्धि आंनद के लिये; आत्मा अनुभव परमानन्द के लिए आतुर, कातुर आकांक्षित एवं प्रतीक्षित हैं ।
श्र बुद्धि में पूर्ण बोध होने के साथ-साथ ही आत्मा में अनुभव होना पाया जाता है ।
श्र आत्मा (स्व-स्वरूप) पूर्ण, मध्यस्थ, व नित्य शांत है, इसीलिए उसमें या उस पर सम या विषम का आक्रमण सिद्ध नहीं होता है ।