व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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Page 84

श्र हर जड़ क्रिया से प्राप्त जो स्वीकृति पक्ष है, वह मन का है, जिसके लिए विह्वलता-पूर्वक की गई क्रिया के बदले में पाई गई उपलब्धियाँ सुख एवं दु:ख हैं ।

श्र जागृत मानव के मनाकृति से उत्पादन रूपी कृतियाँ, कृतियों से उपयोगी आकृति, उपयोगी आकृतियों से कुशलता/निपुणता का प्रमाण, कुशलता/निपुणता से सम्वेग, सम्वेग से समाधान, समाधान से परिस्थितियाँ, परिस्थिति से अभ्युदय, अभ्युदय से योग, योग से सुख, शांति, संतोष; सुख, शांति, संतोष ही रत्यात्मक रति, रत्यात्मक रति ही मन: स्वस्थता तथा मन:स्वस्थता ही निर्भ्रमता है । जागृत मानव उपरोक्त क्रम विधि से प्रमाणित होता है ।

:: कृति ः- विचारानुरूप की गई क्रिया की ‘कृति’ संज्ञा है ।

:: आकृति ः- क्रिया द्वारा अनेक अणु-परमाणु समूहों के संगठित रूप की ‘आकृति’ संज्ञा है ।

:: मानवीयतापूर्ण तथा अतिमानवीयतापूर्ण विचारों के अनुरूप कार्य की ‘सुकृति’ तथा अमानवीयतावादी विचारों के अनुरूप किये गये कार्य की ‘दुष्कृति’ संज्ञा है ।

:: आसक्तिः- क्रिया के लिये जो आकर्षण है, उसकी ‘आसक्ति’ संज्ञा है ।

:: सम्वेग ः- जागृति के प्रति उत्कण्ठा की ‘सम्वेग’ संज्ञा है ।

:: परिस्थिति ः- समाधान से युक्त मानसिक तथा शारीरिक अवस्था की ‘परिस्थिति’ संज्ञा है ।

:: योग ः- स्वयम् में जिसका अभाव हो या अभाव प्रतीत होता हो, दूसरें मेें उसी की समृद्धि (स्वभाव) हो, ऐसे उभय-सान्निध्य की ‘योग’ संज्ञा है ।

:: रति ः- उपरोक्तानुसार प्राप्त उभय-सान्निध्य, मध्यस्थ-आकर्षण एवं प्रत्याकर्षण के प्रबल वेग की ‘रति’ संज्ञा है ।

:: रत्यात्मक रति ः- रति की निरंतरता से ‘रत्यात्मक रति’ है ।

:: विरत्यात्मक रति ः- रति की निरंतरता जिसमें नहीं है ।

:: वियोग ः- रति खंडन की ‘वियोग’ संज्ञा है ।

:: मनाकृति ः- योग वियोग से प्राप्त जानकारी सहित पुनर्कल्पना की ‘मनाकृति’ संज्ञा है ।

श्र विचार के अभाव में रति क्रिया सिद्ध नहीं है ।

श्र जड़ के साथ रति क्रिया क्षणिक तथा अस्थाई, वैचारिक रति दीर्घकालिक तथा सत्य रति नित्यकालिक है जो केवल अनुभव और अनुभव की निरंतरता है ।