व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

Back to Books
Page 83

अनुभव सम्पन्नता के अनंतर जब तक वित्तेषणा पुत्रेषणा में जीता है, तब तक भ्रांताभ्रांत अवस्था है ।

श्र भ्रमित चैतन्य इकाई में ज्ञान के अपारदर्शी होने के फलस्वरूप ही अज्ञान विवशता के रूप में बना रहता है, अर्थात् अतिव्याप्ति, अव्याप्ति या अनाव्याप्ति दोष सहित ही स्वीकृति होती है, यही ‘भ्रान्त’ अवस्था है ।

:: अतिव्याप्ति ः- जो जैसा है, उससे अधिक समझना ।

:: अव्याप्ति ः- जो जैसा है, उसे वैसा न समझना ।

:: अनाव्याप्ति ः- जो जैसा है, उसे उससे कम समझना ।

श्र जागृति की परिपूर्णता पारदर्शकता से ही सिद्ध होती है । मानव के लिए यह जागृति ज्ञान की पारदर्शकता से सिद्ध होती है ।

श्र आकार, प्रकार, श्वास, प्रश्वास, आस्वादन तथा उत्पादन के एक-सूत्रात्मक तथा विश्रृंखलात्मक भेद से ही क्रियायें परिलक्षित हैं ।

श्र भ्रमित मानव में मनाकृति तथा कल्पनात्मक गति की सम्मिलित क्रिया ‘आसक्ति’ है, जिसमें आकर्षण या प्रतिकर्षण समाविष्ट रहता है ।

श्र जड़-चैतन्य परमाणु में आकर्षण तथा प्रत्याकर्षण से कंपन है । जड़ प्रकृति में आकर्षण गठन और परमाणु संगठन और अणुरचना के रूप में देखने को मिलता है । आकर्षण-प्रत्याकर्षण विधि से कम्पन होना स्वाभाविक है । भ्रमित चैतन्य प्रकृति में आकर्षण प्रलोभन के रूप में, प्रत्याकर्षण भय के रूप में होता है । जागृत जीवन में आकर्षण समाधान के अर्थ में और विकर्षण समस्या के साथ होता है । आकर्षण, प्रत्याकर्षण क्रिया के साथ जीवन में कम्पनात्मक गति वर्तमान रहती ही है । जीवन परमाणु में कम्पनात्मक गति पाँच अक्षय बल एवं शक्ति के रूप में प्रकट रहती है ।

श्र प्रत्याकर्षण और आकर्षण से वर्तुलात्मक गति है । जड़-चैतन्य परमाणुओं में परिवेशों में घूर्णन व वर्तुलात्मक गति बनी रहती है । मध्यांश में केवल घूर्णन गति बनी रहती है ।

श्र मेधस पर कंपन-प्रदत्त तरंग से ज्ञान का उद्घाटन ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है ।

श्र जीवन द्वारा संकेत रूपी गति-प्रदत्त तरंग से संवेदनशीलता और संज्ञानशीलताएँ व्यवहार में स्पष्ट होते हैंं ।

श्र प्राण और मन के संयुक्त (विवशतापूर्ण आघात) प्रेरणा रूपी कंपन से संवेग है, अथवा इसे ऐसा समझें कि संवेग मन के प्रभाव से संपन्न प्राणवायु-तरंग है, जिससे इंद्रिय-ज्ञान या क्रियाएँ संपन्न होती हैंं ।