व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र मृद, पाषाण, मणि और धातु व उसके विकार को ‘पदार्थाकार’, वनस्पति में पाई जाने वाली प्राण कोषाओं से रचित रचनाओं को ‘प्राणाकार’, पशु-पक्षी में पाई जाने वाली आशा को ‘जीवाकार’ और मानव में पाई जाने वाली क्रिया मात्र के प्रति दर्शन योग्य क्षमता सम्पन्न मन, वृत्ति, चित्त व बुद्धि को ‘ज्ञानाकार’ संज्ञा है ।
श्र मूल्य और मूल्यांकन प्रक्रिया की ‘भाव-क्रिया’ संज्ञा है, जो यथार्थ एवं अयथार्थ भेद से व्यवहृत है, जिसका कारण मूल्यांकन करने वाली इकाई के जागृति एवं भ्रम रूप में भेद है ।
श्र जागृति से ही पूर्ण समझ सहित सही मूल्यांकन होता है अन्यथा अवमूल्यन या अधिमूल्यन होता है ।
श्र मानव अपने जागृति के स्तर से तथा उसके अनुरूप ही मूल्यांकन क्रिया करता है ।
श्र हृदय और पाँच इन्द्रियों से संबंधित विषयों के प्रति जो आसक्ति या अनासक्ति है, उसी के आधार पर ही मानव जीवन की जागृत अवस्था का निर्णय है । मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि और आत्मा के संयुक्त क्रियाकलाप में जागृति प्रमाणित होती है ।
श्र आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन यह चार विषय हृदय का; स्वागत भाव एवं शबॅद, स्पर्श, रूप, रस, गन्धेन्द्रियों द्वारा प्राप्त होने वाले आस्वादन में जो सुख एवं दुःख पक्ष है वह मन का; न्यायान्याय, धर्माधर्म, सत्यासत्य निर्णय वृत्ति का; रूप, गुण, स्वभाव मात्र का तथा सम, विषम, मध्यस्थ ज्ञान का चित्र रचना चित्त का और काल, क्रिया तथा सत्य का बोध बुद्धि का और सहअस्तित्व में अनुभव आत्मा का स्वत्व है ।
श्र शरीर की हर क्रिया और व्यवहार-समुच्चय विचार-पक्ष के योग से ही है, जिसके लिये पंचेन्द्रियाँ माध्यम हैंं ।
श्र मानव ने अपनी सफलता का प्रयास स्वार्थ, परार्थ तथा परमार्थ मात्र से किया है ।
श्र प्राण का विषय हृदय, हृदय का विषय इंद्रिय तथा इंद्रिय का विषय व्यवहार (कर्म) व भोग है । प्राण, हृदय को; हृदय, इंद्रियों को; इंद्रियाँ, व्यवहार व भोग को प्रेरित करते हैं ।
श्र शरीर, हृदय एवं प्राण समूह को ‘स्थूल पिण्ड’ या ‘स्थूल शरीर’, मन, वृत्ति एवं चित्त को ‘सूक्ष्म शरीर’ और बुद्धि एवं आत्मा को ‘कारण शरीर’ संज्ञा है । यहाँ शरीर का तात्पर्य क्रिया से है ।
श्र बुद्धि द्वारा बोध की क्रिया आत्माभिमुख विधि से जागृति को और भ्रमवश विमुख रह कर समस्या का कारण बना रहता है । इसी को जागृति व भ्रम संज्ञा है ।
श्र आत्मा से विमुख बुद्धि ही ‘अहंकार’ है ।
श्र आत्मा के संकेत-ग्रहण से वंचित रहना ही ‘आत्मा विमुखता’ है ।