व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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:: रचना ः- पदार्थ की अवधि की ‘रचना या वस्तु’ संज्ञा है, जिसकी गणना की जाती है ।

:: विस्तार ः- रचना की अवधि की ‘विस्तार’संज्ञा है ।

:: सम ः- उद्भववादी गुणों की ‘सम’ संज्ञा है ।

:: विषम ः- प्रलयवादी गुणों की ‘विषम’ संज्ञा है ।

:: मध्यस्थ ः- विभववादी गुणों की ‘मध्यस्थ’ संज्ञा है ।

च सम, विषम तथा मध्यस्थ गुणों को ही क्रमश: रजोगुण, तमोगुण तथा सतोगुण संज्ञा से भी जाना जाता है ।

श्र संपूर्ण परमाणुओं में पाई जाने वाली क्रिया के लिए प्राप्त ऊर्जा रूपी सत्ता की निरपेक्ष कारण संज्ञा है । निरपेक्ष सत्ता का तात्पर्य जिसका उत्पत्ति क्रम का कारण न हो और नित्य स्थिति में हो ।

श्र परमाणु-व्यूहों में सहवास से जो प्रभाव-विशेेष है, क्रिया, प्रतिक्रिया एवं परिपाक है उसे ‘सापेक्ष कारण’ संज्ञा है ।

श्र अनेक अणु-परमाणुओं से संगठित पिण्ड व उनकी क्रिया को ‘स्थूल-क्रिया’ और परमाण्विक क्रिया को ‘सूक्ष्म-क्रिया’ संज्ञा है ।

श्र गति, कंपन और तरंग भेद से सूक्ष्म गतियाँ तथा क्रि याएँ हैं ।

श्र इकाई में कंपन क्रिया का बढ़ जाना ही विकास की घटना है, तथा इसके विपरीत में ह्रास की घटना है ।

श्र चैतन्य इकाई में कम्पन की अधिकता ही विशेषता है ।

श्र ज्ञान में पारदर्शकता के अंशानुसार चैतन्य इकाई भ्रांत, भ्रांताभ्रान्त तथा निर्भ्रान्त स्थिति में है ।

श्र जड़ता में पारदर्शकता से अंधकार का अभाव, पारभासिकता से अंधकार का आंशिकता में अभाव तथा अपारदर्शकता से अंधकार है । अंधकार मूलतः छाया ही है ।

श्र चैतन्य इकाई में ज्ञान पारदर्शी होने के फलस्वरूप अज्ञान का अभाव हो जाता है, जिससे यथार्थ दर्शन होता है, तथा सर्वत्र ज्ञान ही प्रतिष्ठित परिलक्षित होता है । चैतन्य इकाई के विकास एवं जागृति की यह सीमा ‘निर्भ्रान्त अवस्था’ है ।

श्र भ्रमित चैतन्य इकाई ज्ञान में पारभासी होने के फलस्वरूप अज्ञान का पूर्ण अभाव नहीं होता, पर साथ ही साथ ज्ञान का भास होने लगता है, जिससे कभी-कभी यथार्थ का भास भी होता है, तथा कभी-कभी अतिव्याप्ति, अव्याप्ति अथवा अनाव्याप्ति दोष सहित दर्शन होने लगता है । यही ‘भ्रान्त’ अवस्था है ।