व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
:: अन्न ः- शारीरिक पोषण एवं परिवर्धन हेतु प्रयुक्त पदार्थ की ‘अन्न’ संज्ञा है ।
श्र प्राप्त कर्त्तव्य; वांछित, प्रेेरित व सूचित भेद से हैं ।
श्र प्राप्त कर्त्तव्य का निश्चयपूर्वक किया गया मनन, चिंतन, विचार, चेष्टा, प्रयोग, प्रयास, व्यवसाय व अनुसंधान क्रिया ही ‘निष्ठा’ है । अन्य शब्दों में निश्चित क्रिया की पूर्णता के लिये पाये जाने वाले वैचारिक व शारीरिक योग की निरंतरता ही निष्ठा है ।
श्र निष्ठा के फलस्वरूप ही सामान्याकाँक्षा, महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुएँ; व्यक्ति के रूप में समाधान व अनुभूति के अर्थ में उपलब्धियॉें हैंं । सामान्याकाँक्षा, महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुएं ही धन है । धन समाज की संपत्ति है । संपत्ति जड़ पक्ष ही है और जड़ पक्ष के लिए ही है तथा समाधान और अनुभूति चैतन्य की एवं चैतन्य के लिए ही है ।
ज्ञ धन समाज की संपत्ति का तात्पर्य ः- सामान्य आकाँक्षा और महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुएं होना स्पष्ट है । यही उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजनशील होने के लिये संपूर्ण द्रव्य है । उपयोग परस्परता में होता है । एक से अधिक एकत्रित हुए बिना परस्परता होती नहीं । यही एक से अधिक होना परिवार (कुटुम्ब) अथवा समाज है । यही विशाल होते-होते संपूर्ण मानव एक इकाई के रूप में होना अखंड समाज है । इस प्रकार अखंड समाज के अंगभूत एक परिवार व एक परिवार के अंगभूत एक व्यक्ति होना पाया जाता है । कोई भी वस्तु का उत्पादन और उपयोग, सदुपयोग कार्य में एक से अधिक व्यक्ति का होना आवश्यक है । इस प्रकार संपूर्ण धन समाज में है, समाज से है, समाज के लिए है । भ्रम वश ही तेरा, मेरा, व्यैक्तिक, एकान्तिक ये सब परिकल्पनाओं में मानव सुख पाने की कल्पना व प्रयत्न करता है । यह सार्थक नहीं हुआ । इसे हर विवेकशील व्यक्ति सर्वेक्षण कर सकता है ।
:: विकार ः- आवेशित गति
:: विपाक ः- आवेशित गति का परिणाम
:: व्यंजना ः- प्रभावित होना
श्र कारण, गुण और गणितानुक्रम न्याय से प्राप्त निर्णय की ‘सिद्धांत’ संज्ञा है तथा सिद्धांत से ही किसी भी क्रिया का बोध होता है ।
श्र काल, विस्तार तथा रचना-भेद की गणना गणित से है ।
श्र सम,विषम तथा मध्यस्थ भेद से गुण की प्रक्रिया है ।
श्र घटना के पूर्व-रूप को ‘सापेक्ष-कारण’ संज्ञा है ।
:: काल ः- क्रिया की अवधि की ‘काल’ संज्ञा है ।