व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र हर भूमि पर पाया जाने वाला- ऋतुमान, शीतमान, तापमान और वर्षामान-उस भूमि पर स्थित खनिज एवं वनस्पति के अनुपात पर निर्भर करता है, जिसका निर्णय परीक्षण एवं सर्वेक्षण पूर्वक गणित से सिद्ध होता है ।

श्र सामाजिक संतुलन अथवा असंतुलन स्व-धन/पर-धन, स्व-नारी/पर-नारी तथा दया/ द्वेष-युक्त विचार सहित किये गये व्यवहार से सिद्ध होता है ।

:: स्व-धन ः- प्रतिफल, पारितोषिक तथा पुरस्कार के रूप में प्राप्त धन ‘स्व-धन’ अन्यथा ‘पर-धन’ संज्ञा है ।

:: स्व-नारी/स्व-पुरुष ः- भौगोलिक स्थिति के अनुसार समाज निर्णीत निर्णय के अनुसार ही ‘स्व-नारी तथा स्व-पुरुष’ संज्ञा है, अन्यथा ‘पर-नारी/पर-पुरुष’ संज्ञा है ।

:: दया ः- दूसरों के विकास के लिये यथा-संभव सहायक होना तथा उनके विकास में हस्तक्षेप न करना ही ‘दया’ है । इसके विपरीत में आचरण की ‘द्वेष’ संज्ञा है ।

श्र जन्म-सिद्ध अधिकार, प्रदत्त अधिकार तथा समयोचित अधिकार भेद से मानव कर्त्तव्य पालन के लिये अधिकार प्राप्त करता है ।

श्र जन्म-सिद्ध अधिकार संबंध के अर्थ में, प्रदत्त अधिकार व्यवस्था-गत सीमा के अर्थ में तथा समयोचित अधिकार संपर्क के अर्थ में है ।

:: संबंध ः- माता-पिता एवं पुत्र-पुत्री, भाई-बहिन, पति-पत्नी, साथी-सहयोगी, गुरु-शिष्य तथा मित्र तथा व्यवस्था संबंध के रूप में है ।

श्र प्रदत्त अधिकार ः- कुटुंंब, समाज तथा व्यवस्था-दत्त भेद से है ।

:: कुटुंंब-दत्त अधिकार कुटुंब में कर्तव्यों-दायित्वों के पालन, चरित्र-संरक्षण, प्राण-पोषण व अर्थोपार्जन के लक्ष्य भेद से है ।

:: समाज-दत्त अधिकार समाज-दत्त कर्तव्यों के पालन, गरिमापूर्ण व्यक्तित्व एवम् सार्थक शास्त्र प्रचार तथा सिद्धान्तों के शोध के आशय भेद से है ।

:: व्यवस्था-दत्त अधिकार व्यवस्था-दत्त कर्तव्यों का पालन, शास्त्र सिद्धांतों का कुशलता, निपुणता, पाण्डित्य पूर्वक अध्ययन, व्यवहार व कर्माभ्यास में परिपूर्णता और अधिकार पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर करता है, जिससे सफलता है, अन्यथा में असफलता है ।

श्र समयोचित अधिकार समय व समीचीन मिलन के अनुसार व्यवहार में संपन्न होता है ।

श्र मानव मात्र में सुख की आशा अपरिवर्तनीय है, जिसकी अपेक्षा में ही चेतना विकास मूल्य शिक्षा सेेे विधि व निषेध स्वीकार होता है ।