व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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च स्व-श्रेष्ठता के मान्यता के आधार पर घृणा, दुर्बलता की तुलना में हिंसा तथा दूसरों के विकास के प्रति ईर्ष्या है, जबकि स्व-श्रेष्ठता के अनुरूप असक्षम को समुचित सहयोग देना ही घृणा के स्थान पर उदारता, अपने को पर-विकासानुरूप, जागृति अनुरूप पाने का प्रयास ही स्पर्धा है तथा दुर्बल की रक्षा करना ही दया है ।

श्र हिंसात्मक कार्य व्यक्ति, परिवार, समाज, वर्ग, जाति, मत, सम्प्रदाय, भाषा तथा राष्ट्र के स्तर-भेद से है, जो द्वन्द्व एवं प्रतिद्वन्द्व के रूप मेें परिलक्षित होता है ।

श्र हिंसा की प्रतिहिंसा, द्वन्द्व का प्रतिद्वन्द्व, अपराध का प्रतिकार अवश्यम्भावी है । अत: द्वेष कामना किसी भी देश व काल में मानव के जागृति के लिये सहायक नहीं सिद्ध हुई है ।

:: अविद्या अथवा अज्ञान - जैसा जिसका रूप, गुण, स्वभाव एवं धर्म है, उसको उसी प्रकार समझने योग्य जागृति के अभाव की ‘अविद्या’ अथवा ‘अज्ञान’ संज्ञा है ।

:: अभिमान ः- स्व-बल, बुद्धि, रूप, पद व धन को श्रेष्ठ तथा अन्य को नेष्ट मानने वाली प्रवृत्ति की ‘अभिमान’ संज्ञा है । आरोपित मान ही अभिमान है ।

श्र इकाई समष्टि में अंश के रूप में है ।

श्र प्राणभय, पदभय, मानभय तथा धनभय यह भय के चार कारण भेद हैं । प्राण, पद, मान तथा धन यह स्थानांतरण तथा परिवर्तन से मुक्त नहीं है ।

:: प्राणभय ः- शरीर के अस्तित्व (जीवन्तता) के विपरीत में जो मृत्यु की कल्पना है, वह ‘प्राणभय’ है ।

:: पदभय ः- एक से अनेक तक पाये जाने वाले अधिकार की ‘पद’ संज्ञा है तथा इसके विरोध में ‘पदभय’ संज्ञा है ।

:: मानभय ः- यश के विपरीत में या विरोध में ‘मानभय’ संज्ञा है ।

:: धनभय ः- धन के विरोध की संभावना अथवा स्थिति को ‘धनभय’ संज्ञा है ।

:: उपरोक्त वर्णित चारों उपलब्धियाँ अर्थात् प्राण, पद, मान और धन सामयिक हैं, जिन्हें स्थायी समझ लेना ही संकट का कारण है । क्योंकि प्राण का हरण,पद का पतन या वियोग, मान का भंग तथा धन का व्यय, यह नियति क्रम सिद्धियाँ हैंं ।

श्र अत: मानव के लिये परम लाभ मानवीयता का उपार्जन ही है, जिससे मानव सुखी होता है ।

“सर्व शुभ हो”

अध्याय - चौदह

मानव व्यवहार सहज नियम