व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
पात्रता है । जागृति के पक्ष में क्रिया ही सुसंस्कार है । सुसंस्कार के विपरीत जितने भी क्रियाकलाप हैं, वह अमानवीय जो कुसंस्कार है ।
“सर्व शुभ हो”
अध्याय - तेरह
मानवीयता
श्र मानव के लिये मानवीयता , देवमानवीयता, दिव्यमानवीयता ही एक मात्र सुख शांति संतोष आनन्द के लिए आधार है । सुख हर स्तर का लक्ष्य है अर्थात् सुख अमानवीयता, मानवीयता तथा अतिमानवीयता का भी लक्ष्य है ।
श्र भ्रमवश मानव ने लाभ द्वारा सुखी होने की कामना की है ।
श्र भाव से समाधान, समाधान से सदुपयोग, सदुपयोग से अधिकार, अधिकार से व्यवस्था, व्यवस्था से समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व, समाधान-समृद्धि-अभय-सहअस्तित्व से भाव होता है ।
श्र शोषण पूर्वक प्राप्त आय से एक से अनेक तक सुखी नहीं है ।
श्र शोषक का शुष्क होना अनिवार्य है, क्योंकि क्रिया की अनुवर्ती क्रिया समान होती है ।
श्र जब कमाते हैं, तब गंवाते नहीं; जब गंवाते हैं, तब कमाते नहीं ।
श्र सद्व्यय ही कमाई का प्रयोजन है और अपव्यय ही गंवाई है । इसीलिये सद्व्यय-पूर्वक ही मानव न्यायपूर्ण आय को पाकर सफल तथा सुखी है, अन्यथा असफल एवं दु:खी है ।
श्र तन, मन तथा धन का ही व्यय किया जाता है ।
श्र मानव परिवार, समाज, राष्ट्र एवं लोक क्रम से अन्योन्याश्रित है जिनका अध्ययन तथा अनुसरण करने का अवसर समस्त मानव को प्राप्त है ।
श्र मानव परिवार, समाज, राष्ट्र तथा लोक, प्राप्त अवसर तथा अनुसरण क्रिया के आवश्यकीय नियमों के पालन द्वारा ही सफल हुए हैं । इसके विपरीत असफल हुए हैं ।
श्र मानवीयतापूर्ण व्यवहार पक्ष का पूर्ण अध्ययन ही मानव-कुल के एकसूत्रता सहज सूत्र है ।
श्र मानव कोटि तक ऐसी कोई इकाई नहीं हैंं, जो किसी का आशय न हो, अथवा जो किसी का आश्रित न हो, इसीलिए समस्त क्रिया मात्र अन्योन्याश्रित सिद्ध है । मात्र विचार ही सत्यपूर्ण होने पर स्वतंत्र है, अन्यथा वह भी आसक्ति ही है । स्वतंत्र विचार परस्पर पूरक और उपयोगी सिद्ध है ही ।