व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र मानव व्यवहार में प्रवर्तनशील है । मानव के जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्तावस्था के समस्त व्यवहार में चैतन्य का रहना अनिवार्य है ।

श्र चैतन्य ः- आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अस्तित्व की स्वीकृति के साथ इन पाँचों क्रियाओं सहित गठित इकाई की चैतन्य संज्ञा है ।

श्र चैतन्य पक्ष के अर्थात् जीवन के विकास और जागृति का कारण संस्कार, गुण व स्वभाव है ।

श्र संस्कार अध्ययन, व्यवहाराभ्यास और कर्माभ्यास से है ।

श्र अध्ययन जड़-चैतन्य एवं व्यापक का ही है और यह ज्ञान, विवेक-विज्ञान विधि से ही संपन्न होता है ।

श्र विवेकात्मक अध्ययन से जीवन का अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व और व्यवहार के नियमों का बोध होता है, साथ ही मानव लक्ष्य व जीवन मूल्य स्पष्ट होता है । इस बोध से उत्तरोत्तर सुसंस्कार परिष्कृत होता है ।

श्र व्यवहारिक नियम मानवीयता के संरक्षण के लक्ष्य से हैं ।

★ मानवीयता के संरक्षण का लक्ष्य मानवीय दृष्टि विषय, प्रवृत्ति, मानवीय गुण, स्वभाव और मानवीय व्यवहार में स्पष्ट है, जिससे मानवीयतापूर्ण व्यवहार संपन्न व्यक्ति द्वारा प्रचार, प्रदर्शन तथा प्रेरणा, समर्थ समाज से मानवीयतापूर्ण सामाजिक कार्यक्रम, संरक्षण तथा प्रोत्साहन, नीतिपूर्ण व्यवस्था से ही मानवीयता का समग्र संरक्षणात्मक लक्ष्य पूरा होता है ।

श्र मानव के बहिरंग व्यवहार के लिये सांस्कृतिक व प्राकृतिक भेद से साधन उपलब्ध हैं । मानव द्वारा की जाने वाली कृति (रीति सहित कार्य) का पूर्व-रूप (विचार की स्थिति) ही संस्कार व संस्कृति का स्वरूप है ।

श्र मानवीय संस्कृति रूप, बल, धन एवं पद अनुभव प्रमाण रुप में प्रस्तुत होता है ।

श्र प्राकृतिक साधन खनिज, वनस्पति तथा मानवेतर जीव के जाति-भेद से हैं ।

श्र मानव चैतन्य वर्ग की विकसित इकाई है, इसीलिये इन्हें प्राकृतिक संपदा के सदुपयोग सुरक्षा करने का अथवा भ्रमवश दुरूपयोग करने का अवसर प्राप्त है । क्योंकि विकसित के द्वारा अविकसित का उपयोग सदुपयोग, प्रयोजन सहज प्रमाणित होना और भ्रमवश दुरूपयोग करने की संभावना रहती है । जिसमें मानव उपयोग, सदुपयोग पूर्वक ही सुखी होता है ।

श्र प्राकृतिक संपदा का सदुपयोग से अथवा दुरूपयोग से ऋतु-संतुलन अथवा असंतुलन सिद्ध होता है ।