व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
जाने वाले सभी क्रियाकलाप समाधान कारी, सुखकारी और शुभकारी होना ही अकर्तृत्व है । यही उपलब्धि और समृद्धि है ।
श्र भ्रम से निराकर्षण ही अकर्तृत्व है । अमानवीयता ही हर मानव के लिए अकरणीय है । अकरणीय को न करना ही अकर्तृत्व है ।
निराकर्षण से अकर्तृत्व तथा अचेष्टा से अकर्मण्यता है ।
श्र निराकर्षण अर्थात् आसक्ति से मुक्त अर्थात् अधिमूल्यन, अवमूल्यन व र्निमूल्यन से मुक्त होना निराकर्षण है ।
श्र चेष्टा से मुक्त होने का अधिकार किसी इकाई में नहीं है अथवा किसी इकाई द्वारा सिद्ध नहीं हुआ है, इसीलिये चेष्टा से मुक्ति के प्रयास को अकर्मण्यता, आलस्य एवं प्रमादात्मक दोष निरुपित किया है ।
:: अकर्मणत्व ः- आलस्य और प्रमाद के रूप में होना पाया जाता है । या कर्म से मुक्ति पाने की प्रयास की अकर्मण्यता संज्ञा है ।
:: आलस्य ः- किसी कार्य को सही मानते हुए, उसकी उपादेयता सिद्ध होते हुए भी उसे न करना आलस्य है ।
:: प्रमाद ः- जिस कार्य में उपादेयता सिद्ध होती हो, उस संबंध में ज्ञान के अभाव में वांछित क्रिया न संपन्न होने वाली स्थिति प्रमाद है ।
श्र आंशिक एवं पूर्ण भेद से निराकर्षण है । मानव पद में आंशिक निराकर्षण तथा दिव्य मानव पद में पूर्ण निराकर्षण प्रमाणित है । यह उपकार प्रवृति सहज वरीयता क्रम में स्पष्ट है ।
श्र अंतरंग और बहिरंग समस्त क्रियाएँ सकारात्मक रूप में सम एवं मध्यस्थ है ।
श्र चैतन्य पक्ष की अंतरंग तथा जड़ पक्ष सहित शरीर की बहिरंग संज्ञा है ।
श्र समातिरेक (सृजन) विषमता के लिए कारण, विषमातिरेक (विसर्जन) सम क्रिया सम्पन्न होने का कारण है । यही रचना-विरचना क्रम स्थूल क्रिया में स्पष्ट है ।
श्र मानव जागृति पूर्वक यथास्थिति में ही मध्यस्थ है । यथास्थिति ही स्वभाव गति है ।
श्र स्थिति ही मध्यस्थ है । यह सृजन से विसर्जन तक तथा विसर्जन से सृजन तक है । यह स्थूल क्रियाओं में भी प्रत्यक्ष है । क्रिया मात्र स्थिति नहीं है क्योंकि परिणाम से मुक्त क्रिया नहीं है । इसलिए सत्ता ही स्थिति है ।
श्र हर परमाणु अपने में मध्यस्थ क्रिया है । सम, विषम रत आक्रमणों के मध्यस्थीकरण की क्रिया संपन्न करने योग्य क्षमता, योग्यता और पात्रता के उपार्जन पर्यन्त विकास है ।