व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र आत्मा में जागृति व्यापक वस्तु में अनुभूति क्रिया संपन्न होने की क्षमता तक बुद्धि व चित्त की जागृति विचारों में समाधान प्रस्तुत करने योग्य क्षमता तक वृत्ति तथा मन की जागृति समस्त व्यवहार व क्रिया को न्याय से समन्वित व्यवहार को प्रस्तुत करने की क्षमता की सीमा तक है ।

श्र आसक्ति रहित इकाई में अकर्तृत्व भ्रम मुक्ति रुप में होता है । अधिकाधिक उपकार करने के उपरांत भी और करने की स्वीकृति रहती है ।

श्र आसक्ति भ्रम ही है ।

श्र सम, विषम विचार तथा व्यवहार दोनों आस्वादन क्रियाएं हैंं ।

:: आस्वादन ः- समाधान सहज प्रयोजन के अर्थ में आशा एवं रुचि सहित ग्रहण क्रिया की ही आस्वादन संज्ञा है ।

श्र ईष्ट दिशा में प्रवृत्ति हो तथा अन्य दिशाओं में प्रवृत्ति न हो, उसकी ऐच्छिक निराकर्षण संज्ञा है । संपूर्ण दिशाओं में प्रमाणित होने वाली ही पूर्ण निराकर्षण संज्ञा है ।

श्र निराकर्षण ही अनासक्ति, यही जागृति है । अनासक्ति ही अकर्तृत्व, अकर्तृत्व ही असंचयता, असंचयता ही अभय समृद्धि, अभय समृद्धि ही स्वर्गीयता, स्वर्गीयता ही निराभिमानता, निराभिमानता ही पर-वैराग्य, पर-वैराग्य ही योग, योग ही व्यापकता में अनुभव, व्यापकता में अनुभव ही मध्यस्थता, मध्यस्थता ही प्रामाणिकता, प्रामाणिकता ही निराकर्षण अथवा भ्रममुक्ति है ।

श्र मानव समाज का पोषण एवं सम्वर्धन जीवन मुक्त अथवा भ्रम मुक्त मानवों का स्वभाव है ।

★ पर-वैराग्य का तात्पर्य ः- जागृति के लिए सभी विरोधी (अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति) दोषों से मुक्त होना पर-वैराग्य संज्ञा है । पर का तात्पर्य ही जागृति प्रमाणित होना है ।

“सर्व शुभ हो”

अध्याय - ग्यारह

योग

श्र योग के प्राप्त एवं प्राप्य दो भेद हैंं ।

श्र जो प्राप्य है, उसमें आसक्ति ही संपूर्ण योग संयोग वियोग का कारण है ।

श्र मध्यस्थ व्यवहार, विचार एवं अनुभव ‘प्राप्त योग’ है, जो अनवरत उपलब्ध है, वर्तमान है ।

श्र एकत्व व निकटत्व के भेद से प्राप्य योग है ।