व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र सजातीय मिलन की एकत्व तथा विजातीय मिलन की निकटत्व संज्ञा है । मानव का एकत्व केवल पाण्डित्य, कुशलता एवं निपुणता में है ।
श्र इकाई का ह्रास व विकास प्राप्य योग पर ही है ।
श्र विकास वादी योग की सुयोग तथा ह्रासवादी योग की कुयोग संज्ञा है ।
श्र न्याय एवं धर्म-सम्मत विचार व व्यवहार सम्पन्न एवं सत्यानुभूति सहित मानव जागृत या विकसित, न्याय एवं धर्म सम्मत विचार व व्यवहार संपन्न अर्ध विकसित, न्याय-सम्मत विचार व व्यवहार संपन्न मानव अल्प विकसित प्रगति तथा अन्यायासक्त विचार तथा व्यवहार संपन्न मानव ह्रास की ओर गतिवान है जो पशु मानव व राक्षस मानव के रूप में हैंं ।
श्र जो जिसका अपव्यय करेगा वह उससे वंचित हो जाएगा ।
श्र मानव ह्रास में आसक्ति के फलस्वरूप प्राप्त बल, बुद्धि, रूप, पद और धन का अपव्यय करता है । जड़ पक्ष को वरीय मान लेना ही ह्रास है ।
श्र मानव के लिये आवश्यकीय नियम मानवीयता का संरक्षण ही है जो न्याय एवम् समाधान है, जिसके पालन से स्वर्गीयता का प्रसव है । इसके विपरीत मानव के लिए अनावश्यकीय नियम मानवीयता का शोषण ही है, जो अन्याय है, जिसमें विवशता से नारकीयता का प्रसव होता है ।
श्र असंग्रह समाधान-समृद्धि, स्नेह, विद्या, निराभिमानता (सरलता), अभय एवं वाणी संयम से युक्त विचार मात्र से वैचारिक स्वर्गीयता की, स्वनारी/स्वपुरुष तथा स्वधन एवं दया पूर्ण व्यवहार से व्यवहारिक सुख अथवा व्यवहारिक स्वर्गीयता की उपलब्धियाँ हैं । यही सर्वमानव के लिए आवश्यकीय नियम है ।
★ इसके विपरीत संग्रह, द्वेष, अविद्या, अभिमान (दिखावा), भय तथा वाणी की असंयमता से युक्त विचार से वैचारिक नारकीयता का तथा परनारी/परपुरुष, परधन एवं परपीड़ा रत कार्य एवं व्यवहार से व्यवहारिक क्लेशों से पीड़ित होना होता है ।
श्र मानव-मानव के लिए आवश्यकीय नियमानुक्रम, व्यतिक्रम भेद से ही सुख व दु:ख का, हर्ष एवं अमर्ष का कारण सिद्ध हुआ है ।
श्र समस्त संबंधों एवं संपर्कों, वस्तु एवं विषय, रूप एवं आशय के पोषक एवं शोषक भेद से ही मानव ने नियम का पालन किया है । इनमें से मानवीयता के लिये आवश्यकीय तथा अनावश्यकीय नियमों को जान व समझ लेना ही अध्ययन है तथा इनमें से आवश्यकीय वर्गों को सभी स्तरों पर प्रयोग में लाना ही प्रमाण और उपलबिॅध है ।
श्र मानव जीने के सोपानों को व्यक्ति, परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र, अर्न्तराष्ट्र के परिप्रेक्ष्यों के रूप में पहचाना गया है । दूसरी विधि से व्यक्ति, परिवार, अखंड समाज, सार्वभौम व्यवस्था रूप में पहचान