व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
“सर्व शुभ हो”
अध्याय - बारह
लक्षण, लोक, आलोक एवं लक्ष्य
श्र अवलोकन भेद से ही लक्षण, लोक, आलोक एवं लक्ष्य है ।
:: लक्षण ः- रूप, गुण, स्वभाव व धर्म की लक्षण संज्ञा है ।
:: लोक ः- इच्छा एवं क्रिया के सम्मिलित रूप की लोक संज्ञा है ।
:: आलोक ः- ज्ञान-विवेक-विज्ञान ही आलोक है ।
:: लक्ष्य ः- क्षमता, योग्यता एवं पात्रता अनुसार योगानुभूति योग्य विकास के लिये किए गये प्रयोग एवं प्रयास अनुभूति की लक्ष्य संज्ञा है ।
श्र आलोक सहित (बोध पूर्वक) की गई दर्शन क्रिया की अवलोकन संज्ञा है ।
श्र भोग, प्राप्य योग व प्राप्त योग के भेद से लक्ष्य का निर्धारण किया जाता है ।
श्र भोगासक्ति का लक्ष्य विषय चतुष्टय (आहार, निद्रा, भय और मैथुन) है ।
श्र प्राप्य योग का लक्ष्य लोकेषणा सहित किसी उपकार क्रिया के योग से प्राप्त विभूति अथवा सामर्थ्य द्वारा जन जाति को आप्लावित, प्रभावित करना है ।
श्र विषयासक्त मानव क्रिया से क्रिया की तृप्ति चाहता है, जो संभव नहीं है । क्योंकि संवेदन क्रिया + संवेदन क्रिया से ह्रास अथवा विकास ही संभव है ।
श्र सम्पूर्ण जड़ क्रिया मात्र अपूर्ण है । अर्पूण को पाकर अपूर्ण तृप्त नहीं हो सकता । तृप्ति की संभावना केवल न्याय, धर्म एवं सत्यानुभूति से ही है ।
श्र प्राप्य योग विधि से सफलता पूर्वक किये गये प्रयास से ही विशुद्ध मानवीयता की उपलब्धि होती है, जिससे स्वतंत्र रूप से मानवीयता का संरक्षण होता है । प्राप्त योगानुभूति पूर्वक ही प्राप्य योग सार्थक होता है ।
श्र प्राप्त योगानुभूति ही जागृति है । ऐसी इकाईयाँ ही अनवरत रूप से अन्य के जागृति के लिए समुचित प्रेरणा स्रोत हैं । जो जागृत परम्परा है ।