व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र निरीक्षण, परीक्षण एवं सर्वेक्षण क्रिया द्वारा कारण, गुण व गणित के संयोग से की गयी अवलोकन क्रिया द्वारा ही सत्यता का परिचय होता है ।
श्र उक्त संयोग की अपूर्णता में ही समस्त मतभेद हैं ।
★ मतभेद ही क्रम से विरोध, द्रोह, विद्रोह, द्वेष, विद्वेष, सशंकता, आतंक, दास्यता एवं दुष्टता, शोषण और युद्ध के कारण हैं ।
★ जनजाति के स्तर पर समस्त मतभेद के मूल में एक से अधिक पक्ष का होना अनिवार्य है । उसमें सभी गलत हों तब अथवा कोई एक पक्ष अवश्य गलत हो, तो संघर्ष अवश्य होता है । सब सही हों, ऐसी स्थिति में संघर्ष संभव नहीं है ।
श्र लक्ष्य भेद से आचरण भेद एवं विचार में भी प्रभेद घटित होना पाया जाता है ।
श्र स्व, पर, परिस्थितिवश होने वाले विवशताओं के भेद से ही लक्ष्य निर्णय है ।
श्र स्व-कृत निर्णय, पूर्णता एवं अपूर्णता के दिशा-भेद से है । यथार्थता की ओर ‘पूर्णता’ तथा भ्रामकता की ओर ‘अपूर्णता’ संज्ञा है ।
श्र ज्ञानमूलक विज्ञान एवं विवेक के विधिवत् अध्ययन से यथार्थता की ओर प्रयासोदय है, अन्यथा भ्रामकता की ओर प्रयास है ।
श्र प्रयास ही क्रिया और कार्य व व्यवहार है ।
श्र सुकर्म एवं दुष्कर्म के आशय भेद से वैयक्तिक जीवन व जीविका है, तदनुसार ही भावी घटनाएँ एवं कार्य संपन्न होते हैं ।
श्र सच्चरित्र एवं दुष्चरित्र के भेद से कुटुम्ब है तथा तदनुरुप ही अग्रिम प्राप्तियाँ हैं ।
श्र सिद्धांत, मत, संप्रदाय, वर्ग, भाषा व जाति के विचार व प्रचार भेद से सामुदायिक जीवन है तथा उसी के प्रतिरूप में उसके लिये भावी घटनाएँ है ।
श्र न्याय व अवसरवादितापूर्ण नीति भेद से राष्ट्रीय जीवन है तथा तदनुसार ही उसका भावी मार्ग उत्थान एवं पतन के लिये प्रशस्त है ।
श्र न्यायपूर्ण नीति वह है, जिससे मानवीयता का संरक्षण हो । अवसर वादी नीति वह है, जिससे मानवीयता का संरक्षण न होता हो ।
श्र विवेक अथवा अविवेक, विज्ञान अथवा सामान्य ज्ञान संपन्न विचार व मर्यादा के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय जीवन की घटनाएँ मानव समुदाय के संगठन व विघटन के रूप में भावी क्षणों में प्रतिष्ठित हैं ।
श्र मानव समुदाय रुप में जितना विघटन को प्राप्त करे उतना ही ह्रास है तथा जितना संगठन को प्राप्त करे उतना ही जागृत परंपरा की ओर उन्नति है ।