व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र स्वजन, वस्तु व सेवा को महत्वपूर्ण और अन्य को गौण समझने वाली प्रवृत्ति की स्वार्थ संज्ञा है । इसी प्रकार परजन, वस्तु व सेवा में अधिक महत्व का अनुमान करने वाली प्रवृत्ति व प्रयास को परार्थ संज्ञा दी जाती है ।
श्र विषय चतुष्टय में आसक्ति सबीज है ।
श्र ऐषणात्रय सहित किया गया व्यवहार अखण्ड समाज व्यवस्था केअर्थ में सबीज है ।
श्र ऐषणा मुक्त विचार ही निर्बीज विचार है जो दिव्य मानव कोटि का स्वभाव है ।
श्र व्यष्टि के अस्तित्व में पाया जाने वाला अभिमान व अहंकार ही संकीर्णता व क्लेश का मूल कारण है ।
श्र समष्टि के अस्तित्व की यथार्थ समझ से उदारता एवम् कृतज्ञता की उपलब्धि होती है और व्यापक सत्ता में अनुभूति से भ्रान्ति का उन्मूलन होता है ।
श्र यथार्थ दर्शन के बिना मानवीय विचार, मानवीय विचार के बिना मानवीय कार्य-व्यवहार में प्रवृत्ति, मानवीय कार्य-व्यवहार के बिना व्यवहार की एकसूत्रता, व्यवहार की एकसूत्रता के बिना निर्विरोधिता, निर्विरोधिता के बिना निर्विरोधिता पूर्ण समाज, निर्विरोधता पूर्ण समाज के बिना सहअस्तित्व, सहअस्तित्व के बिना समाधान समृद्धि, समाधान समृद्धि के बिना स्वर्गीयता, स्वर्गीयता के बिना विवेक व विज्ञान पूर्ण अध्ययन, विवेक व विज्ञानपूर्ण अध्ययन के बिना यथार्थ दर्शन का प्रमाण नहीं है ।
“सर्व शुभ हो”
अध्याय - दस
क्लेश मुक्ति
श्र मुक्ति की आशा सर्व मानव में पाई जाती है ।
श्र दु:ख से मुक्ति तथा भ्रम से मुक्ति - ऐसे भेद से ही मुक्ति के लिये प्रयास है, इसी के लिये समस्त अध्ययन, उपासना, प्रयोग, व्यवहार, व्यवसाय, अभ्यास और निष्ठा संपन्न हुई है । विगत परंपरा में मुक्ति का कोई प्रमाण अथवा उपाय अध्ययन गम्य नहीं हुआ है । इसीलिए भ्रम मुक्ति हेतु यह प्रस्ताव है ।
श्र अध्ययन से हर इकाई की गठन, प्रक्रिया, आचरण परिणाम एवं उसका प्रयोजन स्पष्ट होता है ।