व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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में साधन; साधन के मूल में एकसूत्रता; एकसूत्रता के मूल में प्रयास हर मानव इकाई में अपनी-अपनी अवस्था और जागृति अनुसार होना पाया जाता है ।

श्र परस्पर समाधान के अर्थ में जीवन क्रिया व संकेत ग्रहण सहित अनुसरण क्रिया ही ‘एकसूत्रता’ है ।

श्र स्पष्टतापूर्वक प्रसारित संकेतानुसरण से ही एकसूत्रता व जागृति है, अन्यथा भ्रम व ह्रास है ।

श्र भ्रमित व्यक्ति के द्वारा, भ्रमित व्यक्ति को संबोधन एवं अमानवीय शिक्षापूर्वक जागृति को प्रमाणित करना संभव नहीं है । जागृत व्यक्ति के द्वारा ही भ्रमित व्यक्ति को जागृति के लिए मार्ग प्रशस्त करना प्रमाणित होता है और यही स्वयं में जागृति का प्रमाण है ।

श्र हर इकाई अनन्त की तुलना में अंश ही है ।

श्र हर इकाई का गठन अनेक अंशों से सम्पन्न है ।

श्र विखण्डन पूर्वक एकसूत्रता की उपलब्धि सिद्ध नहीं है, क्योंकि क्रिया किसी गठन पर ही आधारित होती है । इसी आधार पर विखण्डन विधि में दाह (ताप या दुःख) पाया जाता है यह दाह, ताप या दुःख पुनः दूसरे के लिये विखण्डन क्रिया के लिए कारक बन जाता है ।

श्र विखण्डन क्रिया से किसी का अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता है, क्योंकि गणितशः इकाई का विखण्डन करते-करते भी कुछ शेष रह ही जाता है । मानव परम्परा में विखण्डन को समुदायों के रूप में पहचाना जाता है और अखण्डता में एकसूत्रता पूर्वक सम्पूर्ण मानव एक इकाई के रूप में पहचान में आता है ।

श्र मानव लौकिक एवम् पारलौकिक भेद से व्यवहार करता है ।

श्र समस्त लौकिक व्यवहार स्वार्थ या परार्थ भेद से है तथा पारलौकिक व्यवहार सबीज और निर्बीज भेद से हैं ।

श्र स्वार्थ (प्रलोभन) अर्थ व काम के भेद से है ।

श्र परार्थ व्यवहार धर्म और अर्थ के भेद से है ।

श्र परमार्थ विचार एवम् व्यवहार धर्म तथा मोक्ष के भेद से है ।

श्र मानवीयता के लिये आवश्यकीय नियमपूर्वक किये गये समस्त राज्यनीति एवम् धर्मनीति सम्मत व्यवहार को ‘नैतिक’ तथा भ्रमवश अमानवीयता पूर्वक किये गये व्यवहार को ‘अनैतिक’ संज्ञा है ।

श्र नैतिक एवम् अनैतिक भेद से स्वार्थ वादी व्यवहार है । इसका सम्बन्ध स्वजन, स्ववर्ग, स्वजाति, स्वमन, स्वसम्प्रदाय, स्वपक्ष तथा स्वभाषा भेद से है, जबकि परार्थ व्यवहार सर्व जन, सर्व वर्ग, सर्व जाति, सर्व मन, सर्व सम्प्रदाय, सर्व पक्ष तथा सर्व भाषा भेद से है ।