व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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श्र सत्य बोध से परिपूर्ण संकल्प से भ्रम मुक्ति होती है ।

श्र लोकासक्ति से (जड़ पक्ष से) विषय सुख फलस्वरूप दुःख एवं समस्या तथा आत्मबोध से सहज सुख की निरन्तरता है ।

श्र लोक परिणाम वादी है, अतः उसका सुख भी क्षणिक है । इसलिए लोकासक्ति बन्धन का कारण है ।

श्र आत्मबोध अमर है व अपरिणामी है, इसलिए आत्मबोध का सुख शाश्वत है । आत्मबोध का तात्पर्य अनुभव बोध से है ।

श्र अतः यह सिद्ध होता है कि जिसमें सुख की निरन्तरता नहीं है, उसी में सुख पाने का प्रयास ही बन्धन है तथा जिसमें सुख स्वभाव है उसका अनुभव ही मोक्ष है ।

श्र भ्रमित इच्छा की पूर्ति के लिए क्रिया तथा क्रिया की पूर्ति के लिए भ्रमित इच्छा निरंतर व्यस्त है, जिसकी पूर्ति नहीं है । इच्छा एवम् क्रिया के सम्मिलित स्वरूप की ‘लोक’ संज्ञा है ।

श्र जिसकी पूर्ति नहीं है, जो पूर्ण नहीं है, उसकी पूर्ति के प्रति और पूर्णता के प्रति जो हठवादी इच्छाएं हैं उसकी ‘मृगतृष्णा’ तथा भ्रान्ति संज्ञा है, जो बन्धन है ।

श्र मृगतृष्णा अथवा भ्रान्ति का निराकरण सह अस्तित्ववादी दर्शन से ही संभव है ।

श्र इकाई का ही दर्शन है और इसके लिए इकाई के रूप, गुण, स्वभाव और धर्म का अध्ययन अनिवार्य है ।

श्र संपूर्ण सृष्टि का कुल अध्ययन जड़, चैतन्य तथा व्यापकता के संदर्भ में ही है । यही भौतिक, रासायनिक एवं जीवन क्रिया के रूप में स्पष्ट है ।

श्र संपूर्ण सृष्टि का अध्ययन मानव ने कुल छः दृष्टिकोणों से किया है ः-

(1) प्रियाप्रिय, (2) हिताहित, (3) लाभालाभ, (4) न्यायान्याय, (5) धर्माधर्म और (6) सत्यासत्य ।

श्र सुखाकाँक्षा से आशय, आशय से आवश्यकता, आवश्यकता से अध्ययन, अध्ययन से क्षमता, क्षमता से दृष्टि, दृष्टि से दर्शन तथा दर्शन से स्पष्टीकरण तथा स्पष्टीकरण से निश्चित योजना है ।

श्र मानव में अर्थ तथा काम के प्रलोभन से ही प्रियाप्रिय, हिताहित तथा लाभालाभ दृष्टियाँ क्रियाशील है, साथ ही धर्म तथा मोक्ष के संकल्पों से न्यायान्याय, धर्माधर्म तथा सत्यासत्य दृष्टियाँ क्रियाशील हैं । भ्रम मुक्ति ही मोक्ष है ।

श्र मानवीयता तथा अतिमानवीयता से समृद्ध होने के लिए मोक्ष व धर्म के प्रति इच्छा एवं जिज्ञासा होना आवश्यक है ।