व्यवहार दर्शन* (Raw)

by A Nagraj

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:: शास्त्र :- निर्दिष्ट लक्ष्योन्मुख सिद्धान्त-प्रक्रिया एवम् नियम तथा वस्तुस्थिति का निर्देशपूर्वक बोध कराने वाले शब्द व्यूह की शास्त्र संज्ञा है ।

:: काव्य ः- जागृत मानव के भाव, विचार एवम् कल्पना-शीलता जो मानव लक्ष्य के अर्थ में हो, को दूसरों तक प्रसारित करने हेतु प्रयुक्त शब्द व्यूह की काव्य संज्ञा है ।

:: इतिहास ः- विगत की मानवीयता की ओर कृतियों एवम् घटनाओं के श्रृंङ्खलाबद्ध क्रम के स्मरणार्थ प्रस्तुत भाषा या शब्द राशि की इतिहास संज्ञा है ।

श्र वंशानुगत अध्यास, विधि विहित तथा विधि हीन भेद से प्रयोग है ।

श्र रचना विरचना पर्यन्त जड़ प्रकृति संज्ञा है एवम् वर्तमान से पहले जिसका निर्माण हो चुका है, उसका अध्ययन तथा भविष्य में जिसके निर्माण की सम्भावना है, उसका अनुमान मानव ने किया है । सम्पूर्ण रचना को जड़ प्रकृति संज्ञा है ।

श्र नियम, प्रक्रिया और फल का संयुक्त प्रमाण ही सिद्धान्त है, क्योंकि समाधान पूर्वक नियम एवम् प्रक्रिया के अभाव में किसी भी क्रिया एवं फल का दर्शन सिद्ध नहीं है । क्रिया के नियम एवम् प्रक्रिया प्रयोजन के बोध से ही वैचारिक परिमार्जन अर्थात् समाधान सम्भव हो सका है ।

:: भूगोल ः- मानव और मानवीयता के अर्थ में पृथ्वी का सर्वेक्षण, निरीक्षणपूर्वक मानचित्र सहित रचना (ज्ञान पाने) के लिये सम्पादित अध्ययन की भूगोल संज्ञा है ।

:: सुसंस्कृत संस्कार ः- विधि मानव चेतना, देव चेतना एवम् दिव्य चेतना क्रम में है । विधि में जो विश्वास है, उसकी सुसंस्कृत सुसंस्कार संज्ञा है ।

श्र मानवीयतापूर्ण प्रवृत्ति एवम् व्यवहार की न्याय तथा अमानवीय प्रवृत्ति एवम् व्यवहार की अन्याय संज्ञा है ।

श्र यथार्थ बोध के पश्चात उसके प्रति उत्पन्न दृढ़ता की विश्वास संज्ञा है ।

:: न्यायपूर्वक की गई कृति की सुकृति तथा अन्यायपूर्वक की गई कृति की दुष्कृति संज्ञा है ।

श्र मानवीयता के लिये आवश्यक नियम ही न्याय है, जिससे ही मानवीयता का संरक्षण एवम् संवर्धन सिद्ध है ।

श्र मानव के व्यवहार का नियंत्रण न्याय से, वैचारिक संयमता धर्म से तथा अनुभव मात्र सत्य से सम्पन्न है ।

श्र नियम से ही नियंत्रण है । स्वीकारने योग्य लक्ष्य से ही धारणा है एवम् जिसमें परिणाम नहीं है ही सत्य है ।

श्र मानव ने स्वीकारने योग्य तथ्य एवम् लक्ष्य सुख को जन्म से ही स्वीकार कर लिया है ।