व्यवहार दर्शन* (Raw)
by A Nagraj
श्र पद एवम् पदातीत के भेद से अर्थ है ।
श्र पदों का वर्गीकरण, अपेक्षाकृत ढंग से, रूप-गुण, स्वभाव-धर्म की अवस्था एवम् अनुपात के अध्ययन से सिद्ध है, इसलिए पद अनेक और पदातीत व्यापक है ।
श्र पद का निर्णय रूप के अनुपात, उसकी अवस्था (स्वभाव) तथा उसमें निहित बल और शक्ति से होता है । यही स्थिति-गति है ।
श्र जो किसी पद में नहीं हो या सीमित न हो, जिसमें ही सभी पद निहित हों या जिसमें उनका समावेश भी हो, उसे पदातीत की संज्ञा है । यह व्यापक सत्ता ही है ।
श्र आकार, आयतन और घनत्व के भेद से रूप का; नाद, गति, भाषा, परिभाषा के भेद से शब्द का तथा उद्भव, विभव एवम् प्रलय के भेद से गुण की अवस्था एवम् अनुपात है ।
श्र नियम एवम् प्रक्रियापूर्वक सिद्ध सिद्धि की ‘अर्थ’ संज्ञा है, आचरण ही नियम है ।
श्र सर्वत्र प्राप्त साम्य सत्ता में अनुभूति (ज्ञान) की ‘पदातीत अर्थ’ संज्ञा है, क्योंकि उसके अस्तित्व का अनुभव है । यह साम्य सत्ता सम्पूर्ण क्रिया के मूल रूप में है और मानव के द्वारा ज्ञान के रूप में प्राप्त है और स्पष्ट है ।
श्र सर्वत्र एक ही प्रकार से स्थित होने के कारण साम्य सत्ता की ही व्यापक संज्ञा है । इसलिये पदातीत व्यापक और पद अनेक एवं सीमित है, क्योंकि इकाईयाँ अनन्त है ।
श्र हर इकाई अपने ह्रास या विकास पूर्वक क्षमता, योग्यता, पात्रता के अनुसार अपने-अपने पद में अवस्थित है ।
श्र पद का निर्णय इकाई के गठन, प्रक्रिया एवम् आचरण से होता है ।
श्र पद भेद से अर्थ भेद, अर्थ भेद से आचरण और व्यवहार भेद, आचरण और व्यवहार भेद से प्रक्रिया भेद तथा प्रक्रिया भेद से अर्थ भेद है ।
श्र छः ओर से सीमित पिण्ड की इकाई तथा ऐसी ही अनेक इकाई अथवा इकाईयों के समूह को अनन्त एवम् असीम स्थिति को निरपेक्ष ऊर्जा संज्ञा है, यही व्यापक सत्ता है । व्यापक निरन्तर मानव के द्वारा आनन्द के अर्थ में अनुभूत है ।
श्र सीमित अर्थ से मात्र सुख और दुःख भासता है । सुख और दुःख का मन वृत्ति में भास, वृत्ति चित्त में आभास होता है । सुख की निरन्तरता में चित्त बुद्धि में प्रतीति, आत्मा में अनुभूति होना पाया जाता है, जिसकी निरन्तरता होती है ।
श्र इच्छानुसार द्रवित होने वाले और चेष्टा करने वाले अंग की इन्द्रिय संज्ञा है, जिनको शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंधेन्द्रियों के नाम से जाना जाता है ।